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केहू जब शहर से / हरिवंश प्रभात
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केहू जब शहर से, गाँव-घर में आ जाला,
आपन बचपन भुलाइन नजर में आ जाला।
उदास चेहरा भी मुस्कान मारे लागेला,
सेमर के फूल भी गिरल डहर में जाला।
कोयल लुकाके गजल गा के बोलावे ओकरा,
झुलुआ झूले में रसरी कमर में आ जाला।
सनेस रोज मिलल आजा पराश खिल गइले
मिठास महुआ के तोहसे असर में जा जाला।
मन के कचनार भी झकझोर जगावे ओकारा,
रोज सपना ओकर पिछला पहर में आ जाला।
ऊ कइसे खुश रही, कौन बइर मीठा बा
‘प्रभात’ चिखला से चरचा खबर में आ जाला।

