भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भग्नांश / गायत्रीबाला पंडा / शंकरलाल पुरोहित

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:09, 19 फ़रवरी 2025 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब भी किसी स्त्री से मुलाक़ात करती हूँ मैं
मुझे लगता है
दो हिस्सों में से एक भाग है वह
तीन हिस्सों में से एक भाग है
या चार, पाँच, छह या सात हिस्सों में से
बस, एक भाग है वह
पता नहीं कितने हिस्सों में
स्वयं को बाँट लेती जै वह।

पता नहीं उसका कौन सा हिस्सा
खड़ा होता है तब मेरे सामने !

केवल बाँटने नहीं
यों असंख्य प्रकार नारी
अपने को माँगती
कभी चटख जाती
कभी दहल जाती
टूटने से पहले
अचानक स्थित होती
कभी डहक उठती
कभी कच्चे मांस का स्वाद बन
किसी की कामना वृद्धि करती
कभी नदी-सी नाल चंचल हो
आगे बह जाती।

जब भी मैं भेंटती किसी नारी से
हिसाब-किताब करने लगती
इधर-उधर से टुकड़े चुगती, सारे सजाती
किसी में न मिलती संपूर्ण नारी।

हर बार कोई भग्नांश
मुझे विकल करता, परेशान
जिसे अंश का एक भाग
दूसरे भाग को खोजता जा रहा ।

मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित

</poem>