भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम उनसे अगर मिल बैठते हैं / इब्ने इंशा

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:19, 9 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम उनसे अगर मिल बैठते हैं क्या दोष हमारा होता है
कुछ अपनी जसारत होती है कुछ उनका इशारा होता है

कटने लगीं रातें आँखों में, देखा नहीं पलकों पर अक्सर
या शामे-ग़रीबाँ का जुगनू या सुबह का तारा होता है

हम दिल को लिए हर देस फिरे इस जिंस के गाहक मिल न सके
ऎ बंजारो हम लोग चले, हमको तो ख़सारा होता है

दफ़्तर से उठे कैफ़े में गए, कुछ शे'र कहे कुछ काफ़ी पी
पूछो जो मआश का इंशा जी यूँ अपना गुज़ारा होता है

जसारत= दिलेरी; ख़सारा=नुक़सान; मआश=आजीविका

(रचनाकाल : )