"नया कवि : आत्म स्वीकार / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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| − | किसी की | + | किसी की कली थी |
| − | मैं ने | + | मैं ने अनदेखे में बीन ली, |
| − | किसी की | + | किसी की बात थी |
| − | + | मैंने मुँह से छीन ली। | |
| − | + | यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ : | |
| − | मैं | + | काव्य-तत्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ? |
| − | + | चाहता हूँ आप मुझे | |
| − | + | एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें। | |
| + | पर प्रतिमा—अरे, वह तो | ||
| + | जैसे आप को रुचि आप स्वयं गढ़े ! | ||
| − | + | '''नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगर), 3 सितम्बर, 1958''' | |
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11:40, 9 अगस्त 2012 के समय का अवतरण
किसी का सत्य था
मैं ने सन्दर्भ में जोड़ दिया।
कोई मधु-कोष काट लाया था
मैं ने निचोड़ लिया।
किसी की उक्ति में गरिमा थी
मैं ने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया,
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैं ने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।
कोई हुनरमन्द था :
मैं ने देखा और कहा, ‘यों !’
थका भारवाही पाया—
घुड़का या कोंच दिया, ‘क्यों ?’
किसी की पौध थी,
मैं ने सींची और बढ़ने पर अपना ली,
किसी की लगायी लता थी,
मैं ने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली।
किसी की कली थी
मैं ने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली।
यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ :
काव्य-तत्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें।
पर प्रतिमा—अरे, वह तो
जैसे आप को रुचि आप स्वयं गढ़े !
नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगर), 3 सितम्बर, 1958

