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"अक्सर एक व्यथा / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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| − | पड़ा हुआ मिलता है, | + | पड़ा हुआ मिलता है, |
| − | सूरज को गिलहरी | + | सूरज को गिलहरी |
| − | पेड़ पर बैठी खाती है, | + | पेड़ पर बैठी खाती है, |
| − | अक्सर दुनिया | + | अक्सर दुनिया |
| − | मटर का दाना हो जाती है, | + | मटर का दाना हो जाती है, |
| − | एक हथेली पर | + | एक हथेली पर |
| − | पूरी बस जाती है । | + | पूरी बस जाती है । |
| − | मैं जहाँ होता हूँ | + | मैं जहाँ होता हूँ |
| − | वहाँ से उठ जाता हूँ, | + | वहाँ से उठ जाता हूँ, |
| − | अक्सर रात चींटी-सी | + | अक्सर रात चींटी-सी |
| − | रेंगती हुई आती है । | + | रेंगती हुई आती है । |
| − | अक्सर एक हँसी | + | अक्सर एक हँसी |
| − | ठंडी हवा-सी चलती है, | + | ठंडी हवा-सी चलती है, |
| − | अक्सर एक दृष्टि | + | अक्सर एक दृष्टि |
| − | कनटोप-सा लगाती है, | + | कनटोप-सा लगाती है, |
| − | अक्सर एक बात | + | अक्सर एक बात |
| − | पर्वत-सी खड़ी होती है, | + | पर्वत-सी खड़ी होती है, |
| − | अक्सर एक ख़ामोशी | + | अक्सर एक ख़ामोशी |
| − | मुझे कपड़े पहनाती है । | + | मुझे कपड़े पहनाती है । |
| − | मैं जहाँ होता हूँ | + | मैं जहाँ होता हूँ |
| − | वहाँ से चल पड़ता हूँ, | + | वहाँ से चल पड़ता हूँ, |
| − | अक्सर एक व्यथा | + | अक्सर एक व्यथा |
| − | यात्रा बन जाती है । | + | यात्रा बन जाती है । |
11:19, 15 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण
अक्सर एक गन्ध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीं पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।
अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।
अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।

