"इतिहास की चिंता / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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| + | कोई निशाँ मिलते नहीं | ||
| + | उम्मीद के ताखे पे बस | ||
| + | आराम कर लेते | ||
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| + | चिराग़ कभी बुझते नहीं | ||
| + | एक दिन | ||
| + | अवसान बेला में | ||
| + | कह रहा था फूल | ||
| + | मंदिर में | ||
| + | चढ़ते समय | ||
| + | क्या भाव थे | ||
| + | उतरा तो कूड़ा हो गया | ||
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| + | इस उपासना लोक से | ||
| + | आओं चलें | ||
| + | कहीं दूर | ||
| + | मिट्टी के गाँव में | ||
| + | जहाँ नर्म-नर्म हवा चले | ||
| + | अँखुये नये फूटें | ||
| + | क्रम नहीं टूटे | ||
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| + | दीप भी कहने लगा | ||
| + | भेार होते देखकर | ||
| + | एक कब्रिस्तान में | ||
| + | किसके लिए | ||
| + | तिल -तिल जला | ||
| + | आँख मूंदे जो पड़ा | ||
| + | दस हाथ के नीचे | ||
| + | इस प्रदर्शन और | ||
| + | मिथ्याचरण से | ||
| + | आओं चलें कहीं दूर | ||
| + | सपनों के गाँव में | ||
| + | जहाँ आँधियाँ भी | ||
| + | गले लगें | ||
| + | तेज- तेज हवा चले | ||
| + | दीप से दीप जल उठे | ||
| + | क्रम नहीं टूटे | ||
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| + | इस समूचे सृजन में | ||
| + | जो कुदरती है | ||
| + | रमा कुदरत में जो | ||
| + | वह हर व्यथा से | ||
| + | मुक्त है | ||
| + | कर्म में जो लीन है | ||
| + | मोक्ष भी अस्वीकार उसको | ||
| + | संसार से है प्यार जिसको | ||
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18:02, 1 जनवरी 2017 के समय का अवतरण
इतिहास की चिंता उसे
जिसका सफ़र छोटा
पंछियों के पाँव के
कोई निशाँ मिलते नहीं
उम्मीद के ताखे पे बस
आराम कर लेते
इस रोशनी के
चिराग़ कभी बुझते नहीं
एक दिन
अवसान बेला में
कह रहा था फूल
मंदिर में
चढ़ते समय
क्या भाव थे
उतरा तो कूड़ा हो गया
इस उपासना लोक से
आओं चलें
कहीं दूर
मिट्टी के गाँव में
जहाँ नर्म-नर्म हवा चले
अँखुये नये फूटें
क्रम नहीं टूटे
दीप भी कहने लगा
भेार होते देखकर
एक कब्रिस्तान में
किसके लिए
तिल -तिल जला
आँख मूंदे जो पड़ा
दस हाथ के नीचे
इस प्रदर्शन और
मिथ्याचरण से
आओं चलें कहीं दूर
सपनों के गाँव में
जहाँ आँधियाँ भी
गले लगें
तेज- तेज हवा चले
दीप से दीप जल उठे
क्रम नहीं टूटे
इस समूचे सृजन में
जो कुदरती है
रमा कुदरत में जो
वह हर व्यथा से
मुक्त है
कर्म में जो लीन है
मोक्ष भी अस्वीकार उसको
संसार से है प्यार जिसको

