"दीवाली के बाद / शैलेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} रचनाकार: शैलेन्द्र Category:कविताएँ Category:शैलेन्द्र ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ राह...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
| (इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
| पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
| − | रचनाकार | + | {{KKRachna |
| − | + | |रचनाकार=शैलेन्द्र | |
| − | + | |अनुवादक= | |
| − | + | |संग्रह=न्यौता और चुनौती / शैलेन्द्र | |
| − | + | }} | |
| − | + | {{KKCatKavita}} | |
| − | + | {{KKCatGeet}} | |
| + | <poem> | ||
राह देखते 'श्री लक्ष्मी' के शुभागमन की, | राह देखते 'श्री लक्ष्मी' के शुभागमन की, | ||
| + | बरबस आँख मुंदी निर्धन की ! | ||
| + | तेल हो गया ख़त्म, बुझ गए दीपक सारे, | ||
| + | लेकिन जलती रही दिवाली मुक्त गगन की ! | ||
| − | + | चूहे आए कूदे-फांदे, और खा गए — | |
| − | + | ||
| − | + | ||
| − | + | ||
| − | + | ||
| − | + | ||
| − | + | ||
| − | चूहे आए कूदे-फांदे, और खा गए | + | |
| − | + | ||
सात देवताओं को अर्पित खील-बताशा; | सात देवताओं को अर्पित खील-बताशा; | ||
| − | |||
मिट्टी के लक्ष्मी-गनेश गिर चूर हो गए | मिट्टी के लक्ष्मी-गनेश गिर चूर हो गए | ||
| − | |||
दीवारें चुपचाप देखती रहीं तमाशा ! | दीवारें चुपचाप देखती रहीं तमाशा ! | ||
| − | |||
चलती रही रात भर उछल-कूद चूहों की | चलती रही रात भर उछल-कूद चूहों की | ||
| − | |||
किन्तु न टूटी नींद थके निर्धन की; | किन्तु न टूटी नींद थके निर्धन की; | ||
| + | सपने में देखा उसने आई है लक्ष्मी | ||
| + | पावों में बेड़ियाँ, हाथ हथकड़ियाँ पहने ! | ||
| − | + | फूट-फूट रोई वह और लगी यों कहने : | |
| + | "पगले, मैं बंदिनी बनी हूँ धनवालों की, | ||
| + | पाँव बँधे हैं कैसे आऊँ पास तुम्हारे ? | ||
| + | नाग बने छाती पर बैठे हैं हत्यारे ! | ||
| + | राम, तुम्हारी हूँ मैं, लेकिन हरी गई हूँ, | ||
| + | सोने की लंका में लाकर धरी गई हूँ ! | ||
| + | बोलो, तुम मुझको कब बन्धन-मुक्त करोगे ? | ||
| + | दुख संकट से मुक्त विश्व सँयुक्त करोगे ?" | ||
| − | + | धनवालों की दीवाली की रात ढल गई, | |
| − | + | अब ग़रीब का दिन है, दिन का उजियाला है ! | |
| − | + | लोगों ने की सभा, फ़ैसला कर डाला है — | |
| + | "एक साथ हम सब रावण पर वार करेंगे, | ||
| + | अपनी दुनिया का हम ख़ुद उद्धार करेंगे ! | ||
| + | अन्नपूर्णा लक्ष्मी को आज़ाद करेंगे, | ||
| + | स्वर्ग इसी धरती पर हम आबाद करेंगे !" | ||
| − | + | '''1949 में रचित | |
| + | </poem> | ||
13:45, 23 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण
राह देखते 'श्री लक्ष्मी' के शुभागमन की,
बरबस आँख मुंदी निर्धन की !
तेल हो गया ख़त्म, बुझ गए दीपक सारे,
लेकिन जलती रही दिवाली मुक्त गगन की !
चूहे आए कूदे-फांदे, और खा गए —
सात देवताओं को अर्पित खील-बताशा;
मिट्टी के लक्ष्मी-गनेश गिर चूर हो गए
दीवारें चुपचाप देखती रहीं तमाशा !
चलती रही रात भर उछल-कूद चूहों की
किन्तु न टूटी नींद थके निर्धन की;
सपने में देखा उसने आई है लक्ष्मी
पावों में बेड़ियाँ, हाथ हथकड़ियाँ पहने !
फूट-फूट रोई वह और लगी यों कहने :
"पगले, मैं बंदिनी बनी हूँ धनवालों की,
पाँव बँधे हैं कैसे आऊँ पास तुम्हारे ?
नाग बने छाती पर बैठे हैं हत्यारे !
राम, तुम्हारी हूँ मैं, लेकिन हरी गई हूँ,
सोने की लंका में लाकर धरी गई हूँ !
बोलो, तुम मुझको कब बन्धन-मुक्त करोगे ?
दुख संकट से मुक्त विश्व सँयुक्त करोगे ?"
धनवालों की दीवाली की रात ढल गई,
अब ग़रीब का दिन है, दिन का उजियाला है !
लोगों ने की सभा, फ़ैसला कर डाला है —
"एक साथ हम सब रावण पर वार करेंगे,
अपनी दुनिया का हम ख़ुद उद्धार करेंगे !
अन्नपूर्णा लक्ष्मी को आज़ाद करेंगे,
स्वर्ग इसी धरती पर हम आबाद करेंगे !"
1949 में रचित

