"अनजाने चुपचाप / नेमिचन्द्र जैन" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नेमिचन्द्र जैन |संग्रह=एकान्त / नेमिचन्द्र जैन }} अनजा...) |
|||
| पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=नेमिचन्द्र जैन | |रचनाकार=नेमिचन्द्र जैन | ||
| − | |संग्रह=एकान्त / नेमिचन्द्र जैन | + | |संग्रह=एकान्त / नेमिचन्द्र जैन; तार सप्तक / अज्ञेय |
}} | }} | ||
| − | + | {{KKCatKavita}} | |
| + | <poem> | ||
अनजाने चुपचाप अधखुले वातायान से | अनजाने चुपचाप अधखुले वातायान से | ||
| − | |||
आती हुई जुन्हाई-सा ही | आती हुई जुन्हाई-सा ही | ||
| − | |||
तेरी छबि का सुधि-सम्मोहन | तेरी छबि का सुधि-सम्मोहन | ||
| − | |||
आज बिखर कर सिमिट चला है मेरे मन में । | आज बिखर कर सिमिट चला है मेरे मन में । | ||
| − | |||
छलक उठा है उर का सागर | छलक उठा है उर का सागर | ||
| − | |||
किसी एक अज्ञात ज्वार से | किसी एक अज्ञात ज्वार से | ||
| − | |||
किन सपनों के मदिर भार से | किन सपनों के मदिर भार से | ||
| − | |||
किन किरनों के परस-प्यार से | किन किरनों के परस-प्यार से | ||
| − | |||
पल भर में यों आज अचानक । | पल भर में यों आज अचानक । | ||
| − | |||
यह किस रूप-परी विरहिन के उर की पीड़ा | यह किस रूप-परी विरहिन के उर की पीड़ा | ||
| − | |||
मेरे जी में भी चुपके से तिर आई है | मेरे जी में भी चुपके से तिर आई है | ||
| − | |||
यों अनजाने ? | यों अनजाने ? | ||
| − | |||
गूँज उठा है अन्तर-जीवन | गूँज उठा है अन्तर-जीवन | ||
| − | |||
किस फेनिल अरुणाभ राग से ? | किस फेनिल अरुणाभ राग से ? | ||
| − | |||
किन फूलों के मधु पराग से | किन फूलों के मधु पराग से | ||
| − | |||
पुलकित हो आया है | पुलकित हो आया है | ||
| − | |||
आकुल मधु-समीर ? | आकुल मधु-समीर ? | ||
| − | |||
जी के इस कानन में भी फूली है सरसों, | जी के इस कानन में भी फूली है सरसों, | ||
| − | |||
इस वन का भी कोना-कोना | इस वन का भी कोना-कोना | ||
| − | |||
है भर उठा अकथ छलकन से, | है भर उठा अकथ छलकन से, | ||
| − | |||
प्राणों के कन-कन से | प्राणों के कन-कन से | ||
| − | |||
झरता मौलसिरी के फूलों-सा | झरता मौलसिरी के फूलों-सा | ||
| − | |||
अम्लान स्नेह । | अम्लान स्नेह । | ||
| − | |||
तुम हो मुझ से दूर कहीं पर | तुम हो मुझ से दूर कहीं पर | ||
| − | |||
यौवन के प्रभात में विकसित | यौवन के प्रभात में विकसित | ||
| − | |||
डाली पर झुक-झुक | डाली पर झुक-झुक | ||
| − | |||
बल खाती | बल खाती | ||
| − | |||
सहज सरल निज क्रीड़ा में रत | सहज सरल निज क्रीड़ा में रत | ||
| − | |||
कुन्द कली-सी । | कुन्द कली-सी । | ||
| − | |||
यह मधुमास सजीला चुप-चुप | यह मधुमास सजीला चुप-चुप | ||
| − | |||
तेरे उर के आंगन को | तेरे उर के आंगन को | ||
| − | |||
गीला कर-कर जाता होगा री, | गीला कर-कर जाता होगा री, | ||
| − | |||
परिमल के मिठास से भाराकुल | परिमल के मिठास से भाराकुल | ||
| − | |||
यह बासन्ती बयार | यह बासन्ती बयार | ||
| − | |||
उलझ-उलझ कर खोल-खोल देती होगी | उलझ-उलझ कर खोल-खोल देती होगी | ||
| − | |||
वह तेरा कच-संभार सुरभिमय । | वह तेरा कच-संभार सुरभिमय । | ||
| − | |||
कुछ अनमनी उदासी से तुम | कुछ अनमनी उदासी से तुम | ||
| − | |||
सहज भाव से | सहज भाव से | ||
| − | |||
अपने विकच लोचनों के ऊपर से-- | अपने विकच लोचनों के ऊपर से-- | ||
| − | |||
वे लोचन जिनमें प्रति पल में | वे लोचन जिनमें प्रति पल में | ||
| − | |||
छलक-छलक आती है बरबस | छलक-छलक आती है बरबस | ||
| − | |||
छनी हुई करुणार्द्र मधुरिमा | छनी हुई करुणार्द्र मधुरिमा | ||
| − | |||
जिन में हो कर सुमुखि, | जिन में हो कर सुमुखि, | ||
| − | |||
तुम्हारे सहज स्नेह का सब गीलापन | तुम्हारे सहज स्नेह का सब गीलापन | ||
| − | |||
बिखर-बिखर आता है-- | बिखर-बिखर आता है-- | ||
| − | |||
किस रजनीगंधा के मद से सदा लबालब | किस रजनीगंधा के मद से सदा लबालब | ||
| − | |||
भरे हुए उन चंचल नैनों के ऊपर से | भरे हुए उन चंचल नैनों के ऊपर से | ||
| − | |||
हटा-हटा देती होंगी वे केश हठीले । | हटा-हटा देती होंगी वे केश हठीले । | ||
| − | |||
यह चांदनी निहार अचानक | यह चांदनी निहार अचानक | ||
| − | |||
उन अनार की अविकच कलियों-से होठों से | उन अनार की अविकच कलियों-से होठों से | ||
| − | |||
तभी तुम्हारे मन का सब अनजाना प्यार लजीला | तभी तुम्हारे मन का सब अनजाना प्यार लजीला | ||
| − | |||
बह-बह आता होगा | बह-बह आता होगा | ||
| − | |||
स्वर-धारा में । | स्वर-धारा में । | ||
| − | |||
पवन-गुंजरण से भी कोमल, अति कोमल | पवन-गुंजरण से भी कोमल, अति कोमल | ||
| − | |||
वाणी का स्वर वह | वाणी का स्वर वह | ||
| − | |||
गूँज-गूँज उठता होगा | गूँज-गूँज उठता होगा | ||
| − | |||
अग-जग में । | अग-जग में । | ||
| − | |||
मैं एकाकी, | मैं एकाकी, | ||
| − | |||
मेरे आगे टेढ़ा-मेढ़ा बिखरा फैला है | मेरे आगे टेढ़ा-मेढ़ा बिखरा फैला है | ||
| − | |||
अनन्त पथ अब भी बाक़ी । | अनन्त पथ अब भी बाक़ी । | ||
| − | |||
बिना तुम्हारे | बिना तुम्हारे | ||
| − | |||
इस बसन्त रजनी की दूध भरी छाया में | इस बसन्त रजनी की दूध भरी छाया में | ||
| − | |||
चला जा रहा हूँ मैं पग-पग | चला जा रहा हूँ मैं पग-पग | ||
| − | |||
बिना विचारे, बिना सहारे । | बिना विचारे, बिना सहारे । | ||
| − | |||
यह मदिरा-सी तरल जुन्हाई-- | यह मदिरा-सी तरल जुन्हाई-- | ||
| − | |||
किसी रूपसी सुरबाला के तन की आभा-सी जो छाई-- | किसी रूपसी सुरबाला के तन की आभा-सी जो छाई-- | ||
| − | |||
भर जाती है मेरे मन में | भर जाती है मेरे मन में | ||
| − | |||
तेरी छबि का सुधि-सम्मोहन, | तेरी छबि का सुधि-सम्मोहन, | ||
| − | |||
और प्यार से | और प्यार से | ||
| − | |||
पिघल-पिघल कर | पिघल-पिघल कर | ||
| − | |||
मेरा दुख हो आता पानी । | मेरा दुख हो आता पानी । | ||
| − | |||
| − | |||
(1939 में आगरा में रचित) | (1939 में आगरा में रचित) | ||
| + | </poem> | ||
22:52, 2 जनवरी 2010 के समय का अवतरण
अनजाने चुपचाप अधखुले वातायान से
आती हुई जुन्हाई-सा ही
तेरी छबि का सुधि-सम्मोहन
आज बिखर कर सिमिट चला है मेरे मन में ।
छलक उठा है उर का सागर
किसी एक अज्ञात ज्वार से
किन सपनों के मदिर भार से
किन किरनों के परस-प्यार से
पल भर में यों आज अचानक ।
यह किस रूप-परी विरहिन के उर की पीड़ा
मेरे जी में भी चुपके से तिर आई है
यों अनजाने ?
गूँज उठा है अन्तर-जीवन
किस फेनिल अरुणाभ राग से ?
किन फूलों के मधु पराग से
पुलकित हो आया है
आकुल मधु-समीर ?
जी के इस कानन में भी फूली है सरसों,
इस वन का भी कोना-कोना
है भर उठा अकथ छलकन से,
प्राणों के कन-कन से
झरता मौलसिरी के फूलों-सा
अम्लान स्नेह ।
तुम हो मुझ से दूर कहीं पर
यौवन के प्रभात में विकसित
डाली पर झुक-झुक
बल खाती
सहज सरल निज क्रीड़ा में रत
कुन्द कली-सी ।
यह मधुमास सजीला चुप-चुप
तेरे उर के आंगन को
गीला कर-कर जाता होगा री,
परिमल के मिठास से भाराकुल
यह बासन्ती बयार
उलझ-उलझ कर खोल-खोल देती होगी
वह तेरा कच-संभार सुरभिमय ।
कुछ अनमनी उदासी से तुम
सहज भाव से
अपने विकच लोचनों के ऊपर से--
वे लोचन जिनमें प्रति पल में
छलक-छलक आती है बरबस
छनी हुई करुणार्द्र मधुरिमा
जिन में हो कर सुमुखि,
तुम्हारे सहज स्नेह का सब गीलापन
बिखर-बिखर आता है--
किस रजनीगंधा के मद से सदा लबालब
भरे हुए उन चंचल नैनों के ऊपर से
हटा-हटा देती होंगी वे केश हठीले ।
यह चांदनी निहार अचानक
उन अनार की अविकच कलियों-से होठों से
तभी तुम्हारे मन का सब अनजाना प्यार लजीला
बह-बह आता होगा
स्वर-धारा में ।
पवन-गुंजरण से भी कोमल, अति कोमल
वाणी का स्वर वह
गूँज-गूँज उठता होगा
अग-जग में ।
मैं एकाकी,
मेरे आगे टेढ़ा-मेढ़ा बिखरा फैला है
अनन्त पथ अब भी बाक़ी ।
बिना तुम्हारे
इस बसन्त रजनी की दूध भरी छाया में
चला जा रहा हूँ मैं पग-पग
बिना विचारे, बिना सहारे ।
यह मदिरा-सी तरल जुन्हाई--
किसी रूपसी सुरबाला के तन की आभा-सी जो छाई--
भर जाती है मेरे मन में
तेरी छबि का सुधि-सम्मोहन,
और प्यार से
पिघल-पिघल कर
मेरा दुख हो आता पानी ।
(1939 में आगरा में रचित)

