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"कोई दिन गर ज़िन्दगानी और है / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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05:21, 3 मार्च 2010 के समय का अवतरण
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हमने ठानी और है
आतिश-ए-दोज़ख़<ref>नरक की आग</ref> में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ए-ग़म-हाए-निहानी<ref>आंतरिक संताप की जलन</ref> और है
बारहा देखीं हैं उनकी रंजिशें
पर कुछ अब के सर-गिराऩी<ref>रोष</ref> और है
देके ख़त मुँह देखता है नामाबर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
क़ातर-अ़अ़मार<ref>जान लेनेवाले</ref> हैं अक्सर नुजूम<ref>सितारे</ref>
वो बला-ए-आसमानी और है
हो चुकीं "ग़ालिब" बलाएं सब तमाम
एक मर्ग-ए-नागहानी और है
शब्दार्थ
<references/>
