भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
| पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
| + | {{KKCatGeet}} | ||
<poem> | <poem> | ||
| − | क्या मेरी आत्मा का चिर धन ? | + | क्या मेरी आत्मा का चिर-धन? |
| − | मैं रहता नित उन्मन, उन्मन ! | + | मैं रहता नित उन्मन, उन्मन! |
| − | + | :प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, | |
| − | प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, | + | :तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, |
| − | तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, | + | :सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर; |
| − | सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर; | + | ::निज सुख से ही चिर चंचल-मन, |
| − | + | ::मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन। | |
| − | निज सुख से ही चिर चंचल मन, | + | मैं प्रेमी उच्चादर्शों का, |
| − | मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन। | + | |
| − | + | ||
| − | मैं | + | |
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का, | संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का, | ||
जीवन के हर्ष-विमर्षों का; | जीवन के हर्ष-विमर्षों का; | ||
| − | + | :लगता अपूर्ण मानव-जीवन, | |
| − | लगता अपूर्ण मानव-जीवन, | + | :मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन। |
| − | मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन। | + | ::जग-जीवन में उल्लास मुझे, |
| − | + | ::नव-आशा, नव-अभिलाष मुझे, | |
| − | जग-जीवन में उल्लास मुझे, | + | ::ईश्वर पर चिर-विश्वास मुझे; |
| − | नव आशा | + | :::चाहिए विश्व को नव-जीवन |
| − | ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे; | + | :::मैं आकुल रे उन्मन, उन्मन! |
| − | + | रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२ | |
| − | + | ||
</poem> | </poem> | ||
14:19, 10 मई 2010 का अवतरण
क्या मेरी आत्मा का चिर-धन?
मैं रहता नित उन्मन, उन्मन!
प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,
तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,
सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;
निज सुख से ही चिर चंचल-मन,
मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन।
मैं प्रेमी उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;
लगता अपूर्ण मानव-जीवन,
मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।
जग-जीवन में उल्लास मुझे,
नव-आशा, नव-अभिलाष मुझे,
ईश्वर पर चिर-विश्वास मुझे;
चाहिए विश्व को नव-जीवन
मैं आकुल रे उन्मन, उन्मन!
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२

