"दायम तेरे दर पे / अनामिका" के अवतरणों में अंतर
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| − | ’दर‘ का ’दर्द‘ से | + | कम से कम |
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| − | कोई तो रिश्ता | + | ’दर‘ का ’दर्द‘ से |
| − | ’दायम पडा हुआ | + | होगा जरूर |
| − | तेरे दर पर | + | कोई तो रिश्ता |
| − | नहीं हूँ मैं - | + | ’दायम पडा हुआ |
| − | कह नहीं सकती | + | तेरे दर पर |
| − | बेचारी दरी। | + | नहीं हूँ मैं - |
| − | जूते-चप्पल झेलकर भी | + | कह नहीं सकती |
| − | हरदम सजदे में बिछी | + | बेचारी दरी। |
| − | धूल फाँकती सदियों की | + | जूते-चप्पल झेलकर भी |
| − | मसक गई है ये जरा-सी | + | हरदम सजदे में बिछी |
| − | जब कभी खिंच जाती है | + | धूल फाँकती सदियों की |
| − | सभा लम्बी | + | मसक गई है ये जरा-सी |
| − | राकस की टीक की तरह | + | जब कभी खिंच जाती है |
| − | धीरे से भरती है | + | सभा लम्बी |
| − | शिष्ट दरी | + | राकस की टीक की तरह |
| − | नन्हीं-मुन्नी एक | + | धीरे से भरती है |
| − | अचकचाती-सी | + | शिष्ट दरी |
| − | उबासी | + | नन्हीं-मुन्नी एक |
| − | पुराने अदब का | + | अचकचाती-सी |
| − | इतना लिहाज है उसे, | + | उबासी |
| − | खाँसती भी है तो धीरे से! | + | पुराने अदब का |
| − | किरकिराती जीभ से रखती है | + | इतना लिहाज है उसे, |
| − | होंठ ये | + | खाँसती भी है तो धीरे से! |
| − | लगातार तर | + | किरकिराती जीभ से रखती है |
| − | किसी पुराने चश्मे के काँच-सी-धुँधली, | + | होंठ ये |
| − | किसी गंदुमी शाम-सी धूसर | + | लगातार तर |
| − | सभागार की ये पुरानी दरी | + | किसी पुराने चश्मे के काँच-सी-धुँधली, |
| − | बुनी गई होगी | + | किसी गंदुमी शाम-सी धूसर |
| − | गालिब के किसी शेर की तरह | + | सभागार की ये पुरानी दरी |
| − | कम-से-कम | + | बुनी गई होगी |
| − | दो शताब्दी पहले। | + | गालिब के किसी शेर की तरह |
| − | नई-नई माँओं को | + | कम-से-कम |
| − | जब पढने होते हैं | + | दो शताब्दी पहले। |
| − | सेमिनार में पर्चे | + | नई-नई माँओं को |
| − | पीली सी साटन की फालिया पर | + | जब पढने होते हैं |
| − | छोड जाती हैं वे बच्चे | + | सेमिनार में पर्चे |
| − | सभागार की इस | + | पीली सी साटन की फालिया पर |
| + | छोड जाती हैं वे बच्चे | ||
| + | सभागार की इस | ||
दरी दादी के भरोसे। | दरी दादी के भरोसे। | ||
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20:40, 4 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
सभागार की
ये पुरानी दरी
गालिब के
किसी शेर के साथ
बुनी गई होगी -
कम से कम
दो शताब्दी पहले।
’दर‘ का ’दर्द‘ से
होगा जरूर
कोई तो रिश्ता
’दायम पडा हुआ
तेरे दर पर
नहीं हूँ मैं -
कह नहीं सकती
बेचारी दरी।
जूते-चप्पल झेलकर भी
हरदम सजदे में बिछी
धूल फाँकती सदियों की
मसक गई है ये जरा-सी
जब कभी खिंच जाती है
सभा लम्बी
राकस की टीक की तरह
धीरे से भरती है
शिष्ट दरी
नन्हीं-मुन्नी एक
अचकचाती-सी
उबासी
पुराने अदब का
इतना लिहाज है उसे,
खाँसती भी है तो धीरे से!
किरकिराती जीभ से रखती है
होंठ ये
लगातार तर
किसी पुराने चश्मे के काँच-सी-धुँधली,
किसी गंदुमी शाम-सी धूसर
सभागार की ये पुरानी दरी
बुनी गई होगी
गालिब के किसी शेर की तरह
कम-से-कम
दो शताब्दी पहले।
नई-नई माँओं को
जब पढने होते हैं
सेमिनार में पर्चे
पीली सी साटन की फालिया पर
छोड जाती हैं वे बच्चे
सभागार की इस
दरी दादी के भरोसे।

