"कहाँ हूँ मैं / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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| + | कहाँ हूँ मैं ! | ||
| + | ढूँढ रही अपने को दुनिया की भीड़ में | ||
| + | उत्सव -हुलास इधर , मस्त-मगन लोग | ||
| + | संभव है यहीं- कहीं सामना हो जाय | ||
| + | लोगों में घूम फिरी | ||
| + | कहाँ -कहाँ ढूँढ फिरी ! | ||
| + | नहीं ,यहाँ कहीं नहीं ! | ||
| + | नहीं मिली ! | ||
| + | पता नहीं कहाँ हूँ ! | ||
| + | खोजूँ कहाँ अपने को ? | ||
| + | हूं भी , कि हूँ ही नहीं ? | ||
| + | * | ||
| + | यहीं दूर खड़ा कौन? | ||
| + | होकर असिक्त , निर्लिप्त सभी रंगों से ! | ||
| + | चुप्प ,एक दर्शक -सा ! | ||
| + | चेहरा बहुत जाना-पहचाना , | ||
| + | ओह ,मैं ही तो ! | ||
| + | यहाँ हूँ , लेकिन उपस्थित नहीं ! | ||
| + | रुका जाता नहीं यहाँ, | ||
| + | और कहीं निकल चलो ! | ||
| + | * | ||
| + | उधऱ एक बालक अकेला असहाय, | ||
| + | रोचा सिसकता लगातार , | ||
| + | कंठ घरघराता ,बीमार , | ||
| + | रोते-रोते थक गया सा ! | ||
| + | माँ उधर उत्सव के आंगन के नलके पर | ||
| + | खुशियों के भाँडों में जमी -जली खुरचन को , | ||
| + | जूठन की पर्तों में जकड़े हुये बर्तन को, | ||
| + | रगड़-रगड़ धोयेगी , | ||
| + | नहीं उठ पायेगी ! | ||
| + | कुछ न कर पायेगी ! | ||
| + | * | ||
| + | बालक ? | ||
| + | अकेला पड़ा रुक-रुक रोयेगा ! | ||
| + | भूखा, अकेला ,बीमार , | ||
| + | कैसे सोयेगा ? | ||
| + | कोई नहीं जो | ||
| + | नेह दृष्टि डाल सहला दे ! | ||
| + | बहला दे, | ||
| + | लगा ले आँचल से थपक कर सुला दे ! | ||
| + | आते-जाते अपने में मगन लोग, | ||
| + | कोई देखता ही नहीं ! | ||
| + | * | ||
| + | कोई है , , | ||
| + | ख़ड़ा यहीं ,सिक्त दृष्टि ले दुलारता , | ||
| + | नयनों में झाँकता निहारता ! | ||
| + | अपने ही आँसुओं को पल्ले से पोंछता | ||
| + | खड़ा यहीं के यहीं ! | ||
| + | नैन अभी गीले हैं , | ||
| + | आँसू बहे आये गाल मेरे हैं ! | ||
| + | फिर -फिर पोंछ रहे हाथ यही मेरे हैं ! | ||
| + | दृष्टि ने कहा था यही - | ||
| + | ' कोख-जाया माँ ,उस जनम का मैं तुम्हारा हूँ! | ||
| + | भूल गईं ?' | ||
| + | फेर नहीं पा रही निगाह | ||
| + | कैसे छोड़ दूँ अकेला असहाय ! | ||
| + | लौट जाओ मेरे प्रतिरूप | ||
| + | मेरे बिना कौन उसे देखेगा ? | ||
| + | हीं ठीक हूँ मैं ! | ||
| + | * | ||
| + | राग-रंग मुझसे दूर-दूर रह जायेंगे , | ||
| + | परस नहीं पायेंगे, | ||
| + | कोशिशे बेकार हर बार ! | ||
| + | पडे हुये कुण्ठित सुख -बोध सभी, | ||
| + | मेरी गुज़र नहीं कहीं ! | ||
| + | डुबा सकी होती मन क्षण भर ही, काश ,कहीं ! | ||
| + | * | ||
| + | मत कहो आने को ! | ||
| + | रोने की क्षीण ध्वनि , | ||
| + | सुख की उल्लास भरी तानो | ||
| + | को चीरती , वहाँ तक चली आयेगी ! | ||
| + | कानो से रह-रह टकरायेगी ! | ||
| + | मुझे यहीं रहना है! | ||
| + | रोता अकेला उसे छोड़ कहाँ जाऊँगी ! | ||
| + | लौट यहीं आऊँगी !! | ||
| + | * | ||
| + | दूर , रंग- मंडप की हलचल से | ||
| + | अलग-थलग , | ||
| + | रहने दो कोशिशे, बेकार ! | ||
| + | यहीं ठीक हूँ मैं - | ||
| + | निष्कासित हुई-सी, | ||
| + | निस्संग ! | ||
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08:51, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
कहाँ हूँ मैं !
ढूँढ रही अपने को दुनिया की भीड़ में
उत्सव -हुलास इधर , मस्त-मगन लोग
संभव है यहीं- कहीं सामना हो जाय
लोगों में घूम फिरी
कहाँ -कहाँ ढूँढ फिरी !
नहीं ,यहाँ कहीं नहीं !
नहीं मिली !
पता नहीं कहाँ हूँ !
खोजूँ कहाँ अपने को ?
हूं भी , कि हूँ ही नहीं ?
यहीं दूर खड़ा कौन?
होकर असिक्त , निर्लिप्त सभी रंगों से !
चुप्प ,एक दर्शक -सा !
चेहरा बहुत जाना-पहचाना ,
ओह ,मैं ही तो !
यहाँ हूँ , लेकिन उपस्थित नहीं !
रुका जाता नहीं यहाँ,
और कहीं निकल चलो !
उधऱ एक बालक अकेला असहाय,
रोचा सिसकता लगातार ,
कंठ घरघराता ,बीमार ,
रोते-रोते थक गया सा !
माँ उधर उत्सव के आंगन के नलके पर
खुशियों के भाँडों में जमी -जली खुरचन को ,
जूठन की पर्तों में जकड़े हुये बर्तन को,
रगड़-रगड़ धोयेगी ,
नहीं उठ पायेगी !
कुछ न कर पायेगी !
बालक ?
अकेला पड़ा रुक-रुक रोयेगा !
भूखा, अकेला ,बीमार ,
कैसे सोयेगा ?
कोई नहीं जो
नेह दृष्टि डाल सहला दे !
बहला दे,
लगा ले आँचल से थपक कर सुला दे !
आते-जाते अपने में मगन लोग,
कोई देखता ही नहीं !
कोई है , ,
ख़ड़ा यहीं ,सिक्त दृष्टि ले दुलारता ,
नयनों में झाँकता निहारता !
अपने ही आँसुओं को पल्ले से पोंछता
खड़ा यहीं के यहीं !
नैन अभी गीले हैं ,
आँसू बहे आये गाल मेरे हैं !
फिर -फिर पोंछ रहे हाथ यही मेरे हैं !
दृष्टि ने कहा था यही -
' कोख-जाया माँ ,उस जनम का मैं तुम्हारा हूँ!
भूल गईं ?'
फेर नहीं पा रही निगाह
कैसे छोड़ दूँ अकेला असहाय !
लौट जाओ मेरे प्रतिरूप
मेरे बिना कौन उसे देखेगा ?
हीं ठीक हूँ मैं !
राग-रंग मुझसे दूर-दूर रह जायेंगे ,
परस नहीं पायेंगे,
कोशिशे बेकार हर बार !
पडे हुये कुण्ठित सुख -बोध सभी,
मेरी गुज़र नहीं कहीं !
डुबा सकी होती मन क्षण भर ही, काश ,कहीं !
मत कहो आने को !
रोने की क्षीण ध्वनि ,
सुख की उल्लास भरी तानो
को चीरती , वहाँ तक चली आयेगी !
कानो से रह-रह टकरायेगी !
मुझे यहीं रहना है!
रोता अकेला उसे छोड़ कहाँ जाऊँगी !
लौट यहीं आऊँगी !!
दूर , रंग- मंडप की हलचल से
अलग-थलग ,
रहने दो कोशिशे, बेकार !
यहीं ठीक हूँ मैं -
निष्कासित हुई-सी,
निस्संग !

