"अकिल दाढ़ / शिवदयाल" के अवतरणों में अंतर
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ठीक ही हुआ! | ठीक ही हुआ! | ||
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अकिल दाढ़ | अकिल दाढ़ | ||
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वाकई एक मुसीबत ही तो है। | वाकई एक मुसीबत ही तो है। | ||
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गो कि उसके होने का पता | गो कि उसके होने का पता | ||
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मुझे तब चला | मुझे तब चला | ||
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जब उसे निकलवाने की | जब उसे निकलवाने की | ||
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नौबत आ गई! | नौबत आ गई! | ||
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सुनता हूँ | सुनता हूँ | ||
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सबसे बाद में | सबसे बाद में | ||
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निकलती है अकिल दाढ़ | निकलती है अकिल दाढ़ | ||
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जिसे डाक्टर कहते हैं - | जिसे डाक्टर कहते हैं - | ||
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विज्डम टूथ, | विज्डम टूथ, | ||
| − | + | यानी विवेक दाँत | |
| − | यानी विवेक | + | या कि प्रज्ञा दाँत । |
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| − | या कि प्रज्ञा | + | |
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जैसे पेट में होता है | जैसे पेट में होता है | ||
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एक अपेन्डिक्स | एक अपेन्डिक्स | ||
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जो याद दिलाता रहता है | जो याद दिलाता रहता है | ||
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कि हम कभी | कि हम कभी | ||
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घास खाते रहे होंगे | घास खाते रहे होंगे | ||
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वैसे ही यह अकिल दाढ़ | वैसे ही यह अकिल दाढ़ | ||
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प्रमाण है कि कभी | प्रमाण है कि कभी | ||
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हमारे पास भी | हमारे पास भी | ||
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हुआ करती होगी | हुआ करती होगी | ||
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थोड़ी-बहुत अकल! | थोड़ी-बहुत अकल! | ||
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अब तो अकल का होना | अब तो अकल का होना | ||
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सलामती को जैसे चुनौती देना है, | सलामती को जैसे चुनौती देना है, | ||
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बेअकल रहने से | बेअकल रहने से | ||
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जीना हो रहता है आसान | जीना हो रहता है आसान | ||
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सब ओर होते हैं तब | सब ओर होते हैं तब | ||
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यार ही यार | यार ही यार | ||
| − | + | बाघ-बकरी सब एक घाट | |
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सबके लिए बस एक हाट | सबके लिए बस एक हाट | ||
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गोया हरेक माल बारह आने! | गोया हरेक माल बारह आने! | ||
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उस अकेले, उटंग, | उस अकेले, उटंग, | ||
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मिसफिट, इरिटेटिंग को | मिसफिट, इरिटेटिंग को | ||
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निकलवाना ही श्रेयस्कर था! | निकलवाना ही श्रेयस्कर था! | ||
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अब निश्चिंत हूँ कि | अब निश्चिंत हूँ कि | ||
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अगर बैल की तरह | अगर बैल की तरह | ||
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दाँत गिनवाने की | दाँत गिनवाने की | ||
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नौबत आ भी जाए | नौबत आ भी जाए | ||
| + | तो हड़केंगे नहीं ख़रीदार! | ||
| − | + | आख़िर इस दुनिया में | |
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जब अकल के लिए ही जगह नहीं | जब अकल के लिए ही जगह नहीं | ||
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तो अकिल दाढ़ के लिए क्यों हो, | तो अकिल दाढ़ के लिए क्यों हो, | ||
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वह भी ऐन मेरे मुँह में? | वह भी ऐन मेरे मुँह में? | ||
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21:51, 19 मई 2011 के समय का अवतरण
ठीक ही हुआ!
अकिल दाढ़
वाकई एक मुसीबत ही तो है।
गो कि उसके होने का पता
मुझे तब चला
जब उसे निकलवाने की
नौबत आ गई!
सुनता हूँ
सबसे बाद में
निकलती है अकिल दाढ़
जिसे डाक्टर कहते हैं -
विज्डम टूथ,
यानी विवेक दाँत
या कि प्रज्ञा दाँत ।
जैसे पेट में होता है
एक अपेन्डिक्स
जो याद दिलाता रहता है
कि हम कभी
घास खाते रहे होंगे
वैसे ही यह अकिल दाढ़
प्रमाण है कि कभी
हमारे पास भी
हुआ करती होगी
थोड़ी-बहुत अकल!
अब तो अकल का होना
सलामती को जैसे चुनौती देना है,
ख़तरे में डालना है।
बेअकल रहने से
जीना हो रहता है आसान
सब ओर होते हैं तब
यार ही यार
बाघ-बकरी सब एक घाट
सबके लिए बस एक हाट
गोया हरेक माल बारह आने!
उस अकेले, उटंग,
मिसफिट, इरिटेटिंग को
निकलवाना ही श्रेयस्कर था!
अब निश्चिंत हूँ कि
अगर बैल की तरह
दाँत गिनवाने की
नौबत आ भी जाए
तो हड़केंगे नहीं ख़रीदार!
आख़िर इस दुनिया में
जब अकल के लिए ही जगह नहीं
तो अकिल दाढ़ के लिए क्यों हो,
वह भी ऐन मेरे मुँह में?

