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सूर्य...
तुम विराट अग्नि पिण्ड...
रहस्य भरे प्रकाश पुंज...
कौंधते जलते...
अपनी ही अग्नि रेलते ढेलते...
अविरत चित्र डोरते
और मिटाते...
मैं स्तब्ध
एक बार तुम्हें छूना चाहती हूँ
तुम्हारा हर नाद सुनना चाहती हूँ
तुम्हारा हर चित्र पढ़ना चाहती हूँ...
कभी अपनी अग्नि मद्धम कर
उतरना मेरे आँगन...

