"सम्पराय / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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| − | मुझे मिली थी; | + | वह राह |
| − | कुहरे में दी जैसे मुझे दिखाई | + | मुझे मिली थी; |
| − | मैंने नापी: धीर, अधीर, सहज डगमग, द्रुत, धीरे— | + | कुहरे में दी जैसे मुझे दिखाई |
| − | आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई। | + | मैंने नापी: धीर, अधीर, सहज डगमग, द्रुत, धीरे— |
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| − | यहाँ चुक गई डगर: | + | यहाँ चुक गई डगर: |
| − | उलहना नहीं, मानता हूँ पर | + | उलहना नहीं, मानता हूँ पर |
| − | आज वहीं हूँ जहाँ कभी था— | + | आज वहीं हूँ जहाँ कभी था— |
| − | एक कुहासे की देहरी पर: | + | एक कुहासे की देहरी पर: |
| − | दीख रहा है | + | दीख रहा है |
| − | पार | + | पार |
| − | रूप—रूपायमान—रूपायित— | + | रूप—रूपायमान—रूपायित— |
| − | पहचाना कुछ: जिधर फिर बढ़ूँ— | + | पहचाना कुछ: जिधर फिर बढ़ूँ— |
| − | धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे, | + | धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे, |
| − | हठ धर, | + | हठ धर, |
| − | मन में भर | + | मन में भर |
| − | उछाह! | + | उछाह! |
| − | कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से | + | कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से |
| − | एक बार वह पार गया है? | + | एक बार वह पार गया है? |
| − | नहीं, वही वहीं है कहीं और: | + | नहीं, वही वहीं है कहीं और: |
| − | यह ठौर | + | यह ठौर |
| − | नया है उतना ही जितनी यह राह, | + | नया है उतना ही जितनी यह राह, |
| − | कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु, | + | कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु, |
| − | यह मैं भी: | + | यह मैं भी: |
| − | सभी नया है— | + | सभी नया है— |
| − | नाता ही एक नहीं बदला: | + | नाता ही एक नहीं बदला: |
| − | वह एक खोजता राही | + | वह एक खोजता राही |
| − | एक कुहासे की देहरी पर | + | एक कुहासे की देहरी पर |
| − | लीक धरे पहचाने कुछ-कुछ की | + | लीक धरे पहचाने कुछ-कुछ की |
| − | बढ़ता हठ धर | + | बढ़ता हठ धर |
| − | अनजाने कुछ की ओर | + | अनजाने कुछ की ओर |
| − | भरे मन में उत्साह अतर्कित, निराधार! | + | भरे मन में उत्साह अतर्कित, निराधार! |
| − | रूप, | + | रूप, |
| − | रूपायमान, | + | रूपायमान, |
| − | रूपायित। | + | रूपायित। |
| − | यों गृहीत, | + | यों गृहीत, |
| − | पहचाना। | + | पहचाना। |
| − | फिर इस लिए अनृत | + | फिर इस लिए अनृत |
| − | एकान्त झूठ! | + | एकान्त झूठ! |
| − | वह कैसे होती यात्रा | + | वह कैसे होती यात्रा |
| − | जो पहुँचा कर चुक जाती? | + | जो पहुँचा कर चुक जाती? |
| − | झूठा होगा वह तीर्थ | + | झूठा होगा वह तीर्थ |
| − | सरोवर, नदी, महासागर का जो किनारा-भर होता। | + | सरोवर, नदी, महासागर का जो किनारा-भर होता। |
| − | जहाँ से अपने ही संकल्प | + | जहाँ से अपने ही संकल्प |
| − | न बन जाते ललकार | + | न बन जाते ललकार |
| − | नए अनजाने पानी में घुसने की। | + | नए अनजाने पानी में घुसने की। |
| − | ये सम्मुख फूल बहे जाते हैं: | + | ये सम्मुख फूल बहे जाते हैं: |
| − | पर क्या जाने वे किस के हैं? | + | पर क्या जाने वे किस के हैं? |
| − | क्या जाने वह डूबा, तैरा, | + | क्या जाने वह डूबा, तैरा, |
| − | या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया? | + | या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया? |
| − | या—क्या जाने?—ये फूल स्वयं उस की भस्मी के ही | + | या—क्या जाने?—ये फूल स्वयं उस की भस्मी के ही |
| − | :::::प्रतीक हैं? | + | :::::प्रतीक हैं? |
| − | यह भी हो सकता है | + | यह भी हो सकता है |
| − | कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे: | + | कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे: <!---"बैठ रहे" ही ठीक है---> |
| − | जो आएँ उन्हें असीसे, | + | जो आएँ उन्हें असीसे, |
| − | जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे | + | जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे |
| − | जो पार स्वयं वह कर आया। | + | जो पार स्वयं वह कर आया। |
| − | हो सकता है: पर मेरे द्वारा नहीं— | + | हो सकता है: पर मेरे द्वारा नहीं— |
| − | अब नहीं। | + | अब नहीं। |
| − | मैं जिस देहरी पर हूँ | + | मैं जिस देहरी पर हूँ |
| − | तीर्थ नहीं, | + | तीर्थ नहीं, |
| − | वह सम्पराय है। | + | वह सम्पराय है। |
| − | हठ में कमी नहीं है, | + | हठ में कमी नहीं है, |
| − | मेरा संकल्प भी डगमग, | + | मेरा संकल्प भी डगमग, |
| − | किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं— | + | किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं— |
| − | मुझे पूछना है अब—और खोजता हूँ उस को जिस से | + | मुझे पूछना है अब—और खोजता हूँ उस को जिस से |
| − | ::::यह पूछ सकूँ— | + | ::::यह पूछ सकूँ— |
| − | 'वह दीख रहा है पार मुझे, | + | 'वह दीख रहा है पार मुझे, |
| − | पर बोलो, | + | पर बोलो, |
| − | उस तक जाने का क्या है उपाय— | + | उस तक जाने का क्या है उपाय— |
| − | है क्या उपाय? | + | है क्या उपाय? |
| − | रूप: | + | रूप: |
| − | रूप, | + | रूप, |
| − | रूपायमान, | + | रूपायमान, |
| − | रूपायित। | + | रूपायित। |
| − | स्पृष्ट। अनृत। | + | स्पृष्ट। अनृत। |
| − | प्रव्रजित! | + | प्रव्रजित! |
| − | और कहाँ तक यही अनुक्रम! | + | और कहाँ तक यही अनुक्रम! |
| − | कितना और कुहासा | + | कितना और कुहासा |
| − | कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर? | + | कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर? |
| − | कितना हठ? | + | कितना हठ? |
| − | कितने-कितने मन—कितना उछाह?' | + | कितने-कितने मन—कितना उछाह?' |
| − | है राह! | + | है राह! |
| − | कुहासे तक ही नहीं, पार देहरी के। है। | + | कुहासे तक ही नहीं, पार देहरी के। है। |
| − | मैं हूँ तो वह भी है, | + | मैं हूँ तो वह भी है, |
| − | तीर्थाटन को निकला हूँ | + | तीर्थाटन को निकला हूँ |
| − | कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की: | + | कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की: |
| − | गाता जाता हूँ— | + | गाता जाता हूँ— |
| − | 'है, पथ है: | + | 'है, पथ है: |
| − | वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार— | + | वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार— |
| − | यों नहीं कि वह चुक जाता है: | + | यों नहीं कि वह चुक जाता है: |
| − | पर तीर्थ यही तो होते हैं— | + | पर तीर्थ यही तो होते हैं— |
| − | अनजाने—यद्यपि वांछित—सम्पराय: | + | अनजाने—यद्यपि वांछित—सम्पराय: |
| − | हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!' < | + | हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!' |
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22:02, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
हाँ, भाई,
वह राह
मुझे मिली थी;
कुहरे में दी जैसे मुझे दिखाई
मैंने नापी: धीर, अधीर, सहज डगमग, द्रुत, धीरे—
आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई।
यहाँ चुक गई डगर:
उलहना नहीं, मानता हूँ पर
आज वहीं हूँ जहाँ कभी था—
एक कुहासे की देहरी पर:
दीख रहा है
पार
रूप—रूपायमान—रूपायित—
पहचाना कुछ: जिधर फिर बढ़ूँ—
धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे,
हठ धर,
मन में भर
उछाह!
कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से
एक बार वह पार गया है?
नहीं, वही वहीं है कहीं और:
यह ठौर
नया है उतना ही जितनी यह राह,
कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु,
यह मैं भी:
सभी नया है—
नाता ही एक नहीं बदला:
वह एक खोजता राही
एक कुहासे की देहरी पर
लीक धरे पहचाने कुछ-कुछ की
बढ़ता हठ धर
अनजाने कुछ की ओर
भरे मन में उत्साह अतर्कित, निराधार!
रूप,
रूपायमान,
रूपायित।
यों गृहीत,
पहचाना।
फिर इस लिए अनृत
एकान्त झूठ!
वह कैसे होती यात्रा
जो पहुँचा कर चुक जाती?
झूठा होगा वह तीर्थ
सरोवर, नदी, महासागर का जो किनारा-भर होता।
जहाँ से अपने ही संकल्प
न बन जाते ललकार
नए अनजाने पानी में घुसने की।
ये सम्मुख फूल बहे जाते हैं:
पर क्या जाने वे किस के हैं?
क्या जाने वह डूबा, तैरा,
या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया?
या—क्या जाने?—ये फूल स्वयं उस की भस्मी के ही
प्रतीक हैं?
यह भी हो सकता है
कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे:
जो आएँ उन्हें असीसे,
जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे
जो पार स्वयं वह कर आया।
हो सकता है: पर मेरे द्वारा नहीं—
अब नहीं।
मैं जिस देहरी पर हूँ
तीर्थ नहीं,
वह सम्पराय है।
हठ में कमी नहीं है,
मेरा संकल्प भी डगमग,
किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं—
मुझे पूछना है अब—और खोजता हूँ उस को जिस से
यह पूछ सकूँ—
'वह दीख रहा है पार मुझे,
पर बोलो,
उस तक जाने का क्या है उपाय—
है क्या उपाय?
रूप:
रूप,
रूपायमान,
रूपायित।
स्पृष्ट। अनृत।
प्रव्रजित!
और कहाँ तक यही अनुक्रम!
कितना और कुहासा
कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर?
कितना हठ?
कितने-कितने मन—कितना उछाह?'
है राह!
कुहासे तक ही नहीं, पार देहरी के। है।
मैं हूँ तो वह भी है,
तीर्थाटन को निकला हूँ
कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की:
गाता जाता हूँ—
'है, पथ है:
वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार—
यों नहीं कि वह चुक जाता है:
पर तीर्थ यही तो होते हैं—
अनजाने—यद्यपि वांछित—सम्पराय:
हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!'

