भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अकेला / रामकृपाल गुप्ता
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:07, 3 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकृपाल गुप्ता |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पतझर की संध्या सूनापन नंगे तरु बेचारे
चिर परिचित पथ साथ न कोई केवल चाँद-सितारे।
भाग रही धरती जाने पश्चिम में अरुणाई।
गगनां गण में फैल रही है धवल-धवल तरुणाई।
मृदु पलकों के चित्र पटल पर जगमग जगत सजाने
एक-एक जन जाता होगा अपनी सेज सजाने।
किन्तु हमारा नीड़ कहाँ है सोच रहा मन मारे।
चिर परिचित पथ साथ न कोई केवल चाँद-सितारे।
हे शशि तेरी क्रूर हँसी में कितनी हैअवहेला
तेरे जीवन में भी आयी साथी ऐसी बेला।
हे अम्बर के झिलमिल तारों नन्हीं आह तुम्हारी।
उलझन बनकर आयी पथ में ऊँची एक पहाड़ी
पथ भी उलझन बन जाता है गिरि के एक किनारे।
चिर परिचित पथ साथ न कोई केवल चाँद-सितारे।

