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शांतिपाठ / अमरेन्द्र
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यही समय है, चुप मत बैठो, साधो सुर का देश
जग के कोलाहल से कैसा छलनी-छलनी मन है
चल कर आने मंे डरता है, अब तो मलय पवन है
चैता, होरी, कजरी, झूमर सब ही तो हैं शेष ।
साधो सुर का देश, लोक में साम गान हो अब तो
बरसे वाणी का अमृत वीणा के सुर में छलछल
सुख समाधि का बहे अहर्निश तीनों पुर में छलछल
सब के मन में लोकहितों का एक ध्यान हो अब तो ।
सुर से, कविता से, चित्रों से या फिर नृत्य वलय से
पागल प्रेत बने इस युग को हमें रोकना होगा
अंगुलीमाल उन्मत्त हुआ फिर, इसे टोकना होगा
क्यों मृदंग न शोर करेगा, कुछ भी नहीं जो लय से !
साधो सुर का देश, शोर का शीतल-शांत हृदय हो
चाहे जितना जेठ जले, पर फागुन चैत-निलय हो ।

