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तख्ती पर सिद्धान्त / मुकेश निर्विकार

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एक बड़ी आलीशान कोठी पर
तख्ती लगी थी ‘समाजवाद’ की,
दूसरी बड़ी कोठी पर तख्ती लगी थी
‘साम्यवाद’ की,
तीसरी पर तख्ती लगी थी –‘जनवाद’ की,
वहाँ और भी कई
कोठियाँ थी अलग-अलग ‘वादों’ की।
ये सभी इन सिद्धान्तों में पगे
जन-सेवियों की कोठियाँ थी
बहुत घेरे में फैली, एक दूसरे को
मुँह चिढ़ाती हुई।

पूछ बैठा कोई नादान जिज्ञासु :
“आखिर कैसे पनप गयीं ये
आसमान से बातें करती तमाम कोठियाँ
एक जैसी/अलग-अलग ‘वादों’ को अपनाकर भी?
‘पूंजीवाद’ का तिरस्कार करके भी?”

“यकीनन आप पूंजीवाद हैं जनाब!
तभी तो आपसे गैर-पूंजीवाद की तरक्की
देखी नहीं जाती!”
सभी जनसेवकों की एक समान प्रतिक्रिया थी।