भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है / हबीब जालिब

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:06, 12 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हबीब जालिब |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGh...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है
दोस्तों ने भी क्या कमी की है

ख़ामुशी पर हैं लोग ज़ेर-ए-इताब
और हम ने तो बात भी की है

मुतमइन है ज़मीर तो अपना
बात सारी ज़मीर ही की है

अपनी तो दास्ताँ है बस इतनी
ग़म उठाए हैं शाएरी की है

अब नज़र में नहीं है एक ही फूल
फ़िक्र हम को कली कली की है

पा सकेंगे न उम्रभर जिस को
जुस्तुजू आज भी उसी की है

जब मह-ओ-महर बुझ गए 'जालिब'
हम ने अश्कों से रौशनी की है