कथा से बाहर / केतन यादव
हम अलग हुए जैसे ज़िन्दा लहलहाती धरती अलग होती है
जैसे नदियाँ अलग होती हैं मुल्कों के समझौते के बाद
जैसे एक मिट्टी-पानी से बनी संस्कृतियाँ अलग होती हैं
भीतर का लहू विस्थापितों सा दमभर दौड़ता रहा
कोशिकाएँ मरती रहीं पहचान के संकट में ।
कल हमारे तुम्हारे बीच जब कोई तीसरा आ जाएगा
वह दिलासा देगा तुम्हे कि उसके आने के लिए ही मेरा जाना हुआ
और अलग होने को इस तरह सार्थक ठहराया जाएगा
मन किसी साइबर अपराधी की तरह अलग होने के बाद भी
तुम्हारे ठिकानों तक पहुँचने की लाख कोशिशें करता रहेगा
तुम्हारी ख़बर स्मृति की गन्ध बनकर चली आएगी मेरे पास
चायखाने पर चाय से उठती भाप में उमड़ आएगा कोई चेहरा
सिगरेट की राख भभूत की तरह बचाएगी स्मृतियों के कोप से ।
उस रोज़ मैं तुम्हें उन बातों का भी जवाब देता रहा
जो तुमने मुझसे नहीं पूछी थीं
और यह फिर मुझे सवालों तक ही ले जाता
कि मैंने वो जवाब क्यों दिए
तब जब हमारे देश का प्रधानमंत्री किसी भी सवाल का
कोई जवाब नहीं देता
मैं तुम्हारे हर संभावित जवाब के बाद का —
कोई सवाल ढूँढ़ कर रखे जा रहा अपने पास
कोई भी सवाल नहीं लौटा सकेगा तुम्हे वैसा ही
कोई भी छोटी मुलाक़ात नहीं मिटा सकेगी संचित अजनबियत
कोई भी दवा दिल की मजबूती नहीं ला पाएगी
सभी तलाशें रहेंगी एक बड़ी अधूरी
अचेतनता की काम्य अवस्था तक नहीं ले जा सकती
सबसे प्रिय शराब भी
सबसे प्रिय दृश्य सबसे मामूली हो सकता है कभी
इस तरह सारे प्रिय भुलावे
कुछ समयों पर दम तोड़ देते हैं
एक मझा हुआ नाविक दिशाहारा हो सकता
नावें उसे रास्ता देने के लिए बुला रहीं
रेशम का धागा कातने वाली एक सुन्दर लड़की
हाथों पर नहीं महसूस कर सकेगी कोमलता
कोई मनोचिकित्सक मानसिक रोग से परेशान
अपनी जाँच के लिए जा रहा
कोई पटकथा लेखक कथा से लौट चुके पात्र
को पकड़ने खोजने जा रहा
यह कितनी खौफ़नाक बात है कि वह अपने पात्रों की जद में है
और उसके आस-पास के सभी लोग पात्र बन चुके हैं
और वह बिल्कुल अ-पात्र अकेला
अगर लेखक को अकेलेपन से डर लगने लगे तो ?
अकेलेपन के लिए यह कितने ख़तरे की बात होगी ?

