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परिवर्तन / क्षेत्र बहादुर सुनुवार

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तज दो अब तुम
यह जीर्ण मनोवृत्ति
जो मूल्यहीन आदर्शों के
ताक चढ़ा रखी है।

युग के परिवर्तन का
शंखनाद हो चुका है,
विवशता, निराशा, हताशा
के आर्तनादों को त्याग
नव चुनौतियों को
स्वीकृति दो
विजय को प्रतिबद्ध बनो
साधना करो।

कब तक अर्द्ध-चेतना में
जीती रहोगी?
और कब तक आसरा तले
झुलसती रहोगी?
विश्वास के आड़ में
बारम्बार नोचा है
वासना के दस्युओं ने तुम्हें
भद्रता की चादर ओढ़े
लुटा है फरेबियों ने तुम्हें।
क्या गौतम के शब्द
ईसा की मसीहाई
केवल तुम्हारे लिए हैं?

भावशून्य, अर्द्ध-मूर्छित
परम्पराओं को तोड़
झंकृत करो अब
कालिका और दूर्गा के
मूर्तरूप को।
पौरुष की जन्मदाता
प्रतिबिंबित करो
खुद को अब उनमें तुम,
ध्वस्त कर इनके
संकिर्ण विकृत मनःस्थिति
फैल जाओ
अनन्त आसमान की तरह।

लो! महसूस करो
वक्त के नूतन लहर को
देखो!
स्वावलंबन के क्षितिज से
नव-किरण प्रस्फुटित हो रही है
अबलापन की पराकाष्ठा
लाँघ कर।