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मन का फितूर / क्षेत्र बहादुर सुनुवार

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सम्बोधन को
शब्द न मिलने पर
’प्रिये’हीन यह ख़त
तुम्हारे समक्ष आने को तम्तयार है।
हाथों की लकीरों में
जब तुम्हें नहीं पाया तो
मन के बोझ को
हल्का करने के लिए
कभी मंजील तक न पहुँचने वाला
यह ख़त लिखता हूँ।

किसी उच्छृंखल लहरों की तरह
प्रत्यारोपित हो रहे
अनगिनत सपने इस दिल मेंं।
घड़ी-घड़ी स्थिर
तुम्हारे इन तस्वीरों में
खुद को सिमटा पाता हूँ,
अनायास तुम्हारे मुस्कुराहट की कल्पना से
हृदय तरंगित हो उठता है।
मैं निहारता हूँ...निहारता हूँ...और निहारता हूँ
तुम्हारी तस्विर को।
वो आँखे
प्रेमरस का सागर,
होंठ
तप्त एवं कोमलता का सम्मिश्रण
ओह!
आँखें थक जाती है पर मन अतृप्त।

आकांक्षाओं के बागीचे में
बेतरतीब पल्लवित ये कलियाँ
कहाँ तक खिलेंगे
नहीं पता
तथापि
मन का यह फितूर
अनवरत वैसा ही है।
जायज-नाजायज के भँवर में
पिसता आज फ़िर
गन्तव्यहीन, प्रियेहीन
यह ख़त लिखता हूँ।