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गोया बुलाती हो तुम मुझे / क्षेत्र बहादुर सुनुवार

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हर कोई मोड़ पे
मुड़-मुड़कर देखा हैं मैने
गोया बुलाती हो तुम
छुप-छुपकर मुझे!

कभी आँखों के इशारों से
तो कभी दाँतो तले उँगली दबाए,
कभी मुस्कुराते हुए
वही अन्दाज-ओ-हया में
अक्सर पाया हैं मैने
ख़्यालो के शहर में तुम्हें
गोया बुलाती हो तुम मूझे!

बहती हवा की ख़ुश्बू
वही नीले अम्बर तले,
तुम उठकर भागती
उस हरे घास के मैदान पर
चिलचिलाती धूप में,
मैं बार-बार कहता लौट आओ
तुम खिलखिलाती बाँहे फैलाए
गोया बुलाती हो तुम मुझे!

पता नहीं जीवन के
किस मोड़ से मुड़ गई दिशा तुम्हारी,
स्वेच्छा या लाचारी
इस बात का नहीं हैं पता मुझे,
उम्मिंदो के हैं दीप जले
तुम लौट पड़ोगी मुझ तक फ़िर से,
वर्षो बिते मुझे इस राह खड़े
केवल तुम्हारी बाट निहारे,
हर पन्थी के साएँ में
आभास तुम्हारी आए,
जैसे इनके बीच खड़ी कही
अधर तुम्हारी कँपकपाएँ
गोया बुलाती हो तुम मुझे!