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पस्त हौसले / क्षेत्र बहादुर सुनुवार
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सियासत के स्याह में
अब उजालों को भी
दाग़ लगने लगे है।
झूठ सीना ताने
अपनी हूँकार भरे
तो सच छटपटाने लगे हैं।
शेर के ख़ाल में भेड़िए
उत्पात मचाने में मग्न है
शोषित जनता बस
लाचार हिरणी की तरह
याचक बने खड़े है।
झल्लाहट एवं बौखलाहट के
कई रंग इनके चेहरों पर
साफ नज़र आते हैं लेकिन
हौसलों की जड़े अभी
दूर तक जमी नहीं है।
धुआँ बन चुके हैं
इनके आर्तनाद की आह
जहाँ सब धुँधला
नजर आता है,
हर आवेग शिथिल
हो चुके है,
हर साँस पर इनका कद
और छोटा हुआ जाता है।
रोटी, कपड़ा और मकान
केवल जीने का मूल्य नहीं,
अब तो रगो में ख़ून का
बवाल आना बाक़ी है
हरेक फेर पर इक
सवाल आना बाक़ी है,
ईमान से जीने का
अब नया ढब आना बाक़ी है।

