भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकथ / प्रकाश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे पास कहने को कुछ नहीं था
सो जन्मों से कहता जाता था
कहने को होता
तो कहकर चुक जाता

कहने को कुछ नहीं था
सो वाणी डोलती न थी
केवल कुछ तरल-सा हुआ करता था

कहने को कुछ नहीं था
सुबह कोहरा रहता था
समय चुपचाप बहता था
मैं हर बार एक हिलते पौधे से
एक अँजुरी फूल चुनकर
धारा में डाल देता था
और चुपचाप प्रणाम करता था!