भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकाल में गाँवः तीन चित्र / जयप्रकाश मानस

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

।।एक।।


डबडबा उठी हैं सपनों की आँखें

विधवा-सी

पैंजनी / करधनी / चूड़ियों की मन्नतें

मुँह लुकाए

कहीं अंधेरे में बैठा है

त्यौहार वाला दिन

बाँझ की तरह

ससुराल से मायके की पैडगरि के बीच

लापता है गाड़ी वाले का गीत

घंटियों कि ठुन-ठुन

चित्त पड़ा है किसान

छिन्न-भिन्न मन

इधर बहुत दिन हुए

दादी की कोठी में

नहीं महकता दुबराज वाला खेत

उदासी में

डूबा हुआ है गाँव


।।दो।।


इस साल फिर

बिटिया की पठौनी

पुरखौती ज़मीन की

काग़ज़-पतर नहीं लौटेगीसाहूकार की तिजोरी से

बूढ़ी माँ की अस्थियाँ

त्रिवेणी नहीं देख पायेंगी

रातें काटेंगी

बिच्छू की तरह

दिन में डरायेंगे

आने वाले दिनों के प्रेत

सपनों में उतरेगा

रोज़ एक काला दैत्य

मुखौटे बदल-बदल

कबूतर देहरी छोड़कर

चले जायेंगे कहीं और

समूचाघर

पता नहीं

किस अंधे शहर की गुफा में

और गाँव

किसी ठूँठ के आस-पास

पसरा नज़र आता

मरियल कुत्ते की तरह

भौंकता


।।तीन।।


मनचला दुकानदार

किसान की बेटियों से करता है

चुहलबाज़ी

षड़यंत्र छलक रहा है

बाज़ार से

गोदाम तक

ब्याजखोर रक्सा की आँखों में

नाच रही हैं

पुरखों के जेवरातों की चमक

जलतांडव की बहुरंगी तस्वीरें उतारकर

आत्ममुग्ध हैं कुछ सूचनाजीवी

डुबान क्षेत्र के ऊपर

किसी बड़ी मछली का फ़िराक़ में

उड़ रहे हैं बगुले

शहर के मन में

जा बैठा है सियार

गाँव

सब कुछ झेलने के लिए

फिर से है तैयार