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अगर हम मिलते तो / रूपम मिश्र

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अगर हम मिलते तो किसी का कुछ न बिगड़ता
किसी की इंच भर ज़मीन या अंगुल भर आसमान भी हम न लेते
किसी के हिस्से की हवा पर हमारी सांसे न चलतीं
अपनी आँखों के पानी के सिवा कोई प्यास ग़ैर के हक़ पर नहीं बुझती

पर हम नहीं मिले
दुनिया से ज़्यादा अपनी आकबत पर मरे हम
जलते रहे बिन आग-खड़ के

दिन में चढ़ी जलन रात में पिघलकर पानी बन गई जो धार-धार हमारी आँखों से बही
शहर उस दिन धूल से मड़ियाया था आंधी के आसार थे
पर नहीं आई आंधी एक सन्तापी सा दिन आया

रह-रह के उबकाई-सी आ रही थी हमें अपनी आत्मा को दबोचे शुद्धतापन से
नीला आसमान का रंग उस दिन उद्धत था उसमें ऊजहा चन्द्रमा उदास साथ चल रहा था

बस में भीड़ थी, मेरे बगल की सीट पर बैठी बुजुर्ग मुसलमान औरत मेरे रोने का सबब पूछती रही
और पास खड़े अपने बेटे से रामदाना ख़रीदने की ज़िद भी करती रही
न बेटे ने रामदाना उसके लिए ख़रीदा
न मैंने रोने का सबब कहा

सान्त्वना से जी ऐसे अहुका था कि
साड़ी का आँचल मुँह पर डाल लिया
कण्ठ में जैसे युगों की प्यास ऊधिरायी थी
बस में गाना बजता रहा ‘ज़ालिमा कोका कोला पिला दे…!’

तुम नहीं जानते उस दिन अन्धेरा दिन चढ़े ही उतराया था
और उस अन्धेरे में मैं ढूँढ़ती रही अपने मन में उगे प्रेम को
आज मैं उसके मुँह पर थूक देना चाहती थी कि
इतना ही कायर व मुँहचोर थे तो जन्म क्यों ले लिया मुझमें

जीवन की तरह बस ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलती रही
और नैतिकता आदर्श से ऊकठा हमारा मन
लौट-लौट कर उस दिन भी सोचता रहा कि
अगर हम मिलते तो..!