भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अनगिन पड़ाव / पुष्पिता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारी चिट्ठी के
शब्दों की आँखों के तलवों से
छूट गए हैं मन के घर में
तुम्हारे स्वप्न-चिन्ह
शब्दों में ऊँगलियाँ उकेरती हैं
भविष्य-फल
स्वप्नसुख

प्रतीक्षा की दूरियों के बीच
होते हैं शब्दों के अनगिन पड़ाव
अर्थ की अनभिव्यक्त छाँव
साँसें पीती हैं तुम्हारा नाम
उच्चरित करते हैं जिन्हें नयन ओंठ बनकर

आँखें मूँद कर महसूस करती हैं तुम्हें
तुम्हारा शब्दरूप बनकर
चिट्ठी के गहरे आत्मीय इत्मीनान में डूबकर
जी लेती हूँ तुममें होने का आह्लाद-सुख
मन की ऋतुओं का तरंगित स्पर्श-सुख

चिट्ठी जैसे
हवाओं ने साँसों में लिखी है - नम पाती
जैसे सूर्यरश्मि ने जलसतह पर
उतरकर आँकी है प्रणय पाती

डूबते सूरज के हाथों में
सौपें हैं प्रणय के शब्द
यह डाक सुबह जरूर पहुँचेगी
खिड़की खोलते ही तुम्हारे सिरहाने
जैसे मैं होती हूँ
सूरज की रोशनी की तरह
संताप से तप्त चिट्ठी पहुँचेगी तुम्हारे सिरहाने
स्मृतियों में पगी कथा की तरह।