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अपनी भाषा का शायद मैं कवि हूँ आख़िरी / सरबजीत गर्चा / सलील वाघ

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एरिक गिल सत्यजित रे
शमशेर और सल्वादोर दाली
पीछे छूट जाते हैं
क्वाड्रा एवी पावर पीसी
जब सामने
होता है
बिन्दुमानी रेखामानी
भेद
बिसर जाते हैं
रिश्तों के चर्मवाद्य की गूँजें कानों की ओट में
ठण्डी पड़ जाती हैं
जागृति के पहाड़ के पीछे
अस्त हो जाता है सन्दर्भ
हज़ारों रंगों के रण-कोलाहल में
फ़ोटोशॉप कलर स्टूडियो के
खाँचों-पैतामों में
अतिवास्तव रिस जाता है
ब्लर हो जाती हैं प्रतिमाएँ
ब्लर हो जाते हैं पिछले दस बरस
भाषा के जाल के नीचे
धधकती है पिछले
दस बरसों की चान्दनी
परायापन उगाता है परस्पर पराया होता जा रहा मॉनसून
सुनहरे बालों वाली राजकन्या बेख़बर

अपनी मिट्टीमोल मराठी
भाषा की मिट्टी मैं उड़ाता हूँ
नुक्कड़-नुक्कड़ पर गाँव-देहात में
हटती जा रही मराठी बंजर
यथार्थ को मैं बिल्कुल सम्बोधित नहीं करता
किसी और चीज़ को ही उल्टा मैं यथार्थ नाम देता हूँ
कविता में जगह-जगह मिटाए हुए शब्द
इच्छा लेकर मर जाते हैं उनकी अतृप्त आत्मा
बाद में आगे के शब्दों में आती है
तब से लेकर अब तक मैं एक ही कविता लिख रहा हूँ
अपनी भाषा का शायद मैं कवि हूँ आख़िरी

मूल मराठी से अनुवाद : सरबजीत गर्चा