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अपने वा’दों में गिनाते हो मुझे क्या-क्या कुछ / ज़ाहिद अबरोल

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अपने वा’दों में गिनाते हो मुझे क्या क्या कुछ
वक़्त आने पे सिखाते हो मुझे क्या क्या कुछ

ये तशफ़्फ़ी<ref>तुष्टिकरण,appeasement</ref>है या फिर मुझसे है बचने का हुनर<ref>कला</ref>
रात दिन न तुम जो खिलाते हो मुझे क्या क्या कुछ

बंद आंखों में उतरते हो ख़ुदा बन कर तुम
आंख खोलूं तो दिखाते हो मुझे क्या क्या कुछ

साल-हा-साल<ref>प्रति वर्ष</ref>की उल्फ़त<ref>प्रेम</ref>से किनारा कर के
चंद लम्हों में जताते हो मुझे क्या क्या कुछ

मैं तो सह सकता नहीं ख़्वाब की नाख़ुश<ref>अप्रसन्न</ref>बातें
तुम हक़ीक़त <ref>वास्तविकता</ref> में दिखाते हो मुझे क्या क्या कुछ

एक तो सुनते नहीं तुम मिरा शकवा “ज़ाहिद”
उस पे यह ज़ुल़्म, सुनाते हो मुझे क्या क्या कुछ

शब्दार्थ
<references/>