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अब अकेलापन घरों में ले रहा अँगड़ाइयाँ / गिरधारी सिंह गहलोत

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अब अकेलापन घरों में ले रहा अँगड़ाइयाँ।
लील लेता है मुबाइल आज सब किलकारियाँ।

अब सिकुड़ती जा रही ख़ुद में सभी की ज़िंदगी।
रोज बढ़ती जा रही है दूरियाँ और खाइयाँ।

डोर उल्फत की तनी है टूटती या जा रही
दिन ब दिन बढ़ने लगी है इश्क़ में रुसवाइयाँ।

भूल जाओ वो ज़माना साथ मिल बैठे सभी
लूटती अब रात दिन है फ़िक्र और तन्हाईयाँ।

हाथ बाँधे फ़ौज़ियों के क्या नहीं उनके हकूक
जीत फिर कैसे सकेंगे दहशतों से बाज़ियाँ।

कब तलक सहते रहेंगे जुल्म हद होगी कहीं
मातमों की चीख़ में क्यों खो रही शहनाइयाँ।

अब तलक आये नहीं हैं अच्छे दिन आवाम के
ज़िंदगी में बढ़ रही है दिन ब दिन दुश्वारियाँ।

दाल की सुनते हमेशा और महँगी हो रही
ज़ोश में है आजकल तो ख़ूब ये तरकारियाँ।

मौसमों पर क्या भरोसा अब करें क्यों कर 'तुरंत'
ठण्ड के मौसम में गर्मी खो गई पुरवाइयाँ।