भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब अपना ही दर खटकाकर देखेंगे / ध्रुव गुप्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब अपना ही दर खटकाकर देखेंगे
मन का कोना-कोना जाकर देखेंगे

उनमें कुछ हीरे होंगे, मोती होंगे
दुख अपने सारे चमकाकर देखेंगे

जो ख़त तूने कभी नहीं डाले हमको
उन्हें पढ़ेंगे, तहें लगाकर देखेंगे

कभी हमारे कूचे से भी गुज़रो, चांद
खिड़की का पर्दा सरकाकर देखेंगे

जिन राहों को चांद सितारे छोड़ गए
उन राहों पर ख़ाक़ उड़ाकर देखेंगे

हाथ में केवल एक सिफ़र रह जाएगा
जब हासिल में मुझे घटाकर देखेंगे