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अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 1 / भाग 5 / शैलेश ज़ैदी

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कितना भयावह है
मेरे देश का वर्तमान
बदल गये हैं चिन्तन के एक-एक प्रतिमान
जलता है गलियों-चौराहों पर संविधान
टाँकने लगा है इतिहास
अन्धी अनुभूतियाँ
शबरी की आँखें हो गई हैं सजल
ढल गयी है पत्थर में अहिल्या
फिर एक बार
पड़ती नहीं है राम वारिधि की फुहार
जुड़ना नहीं चाहती स्वदेशी जल तत्व से
वर्तमान चिन्तन की विदेशी मरुभूमि
बनती हैं नित्य योजनाएँ
दलितों को ऊँचा बहुत ऊँचा उठाने की
और वह जो सचमुच दलित हैं
जलती हैं आए दिन उनकी झोपड़ियाँ
भस्म हो जाती हैं बोलती प्रतिमाएँ