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अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 3 / भाग 1 / शैलेश ज़ैदी

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शब्दाकाश का अक्षर-अक्षर,
उस समय दहशत बन गया था
बसें, रेलगाड़ियाँ,घर और रास्ते
वैचारिक धुन्ध के बीच
तलाश रहे थे जिजीविषा
कब्‌रिस्तानी अंधेरों की गहरी गुफाओं में
छिप गये थे
कीडे-मकोडे नुमा खास और आम चेहरे
चेहरों पर हँस रही थी
वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी
और मैं देख रहा था उस हँसी के भीतर
चेहरों के निरन्तर बदलते रंगों का तमाशा
पर मौत और जिन्दगी के बीच तैरता स्काई लैब,
किसी छाती पर वज्र बन कर नहीं टूटा
यह देखकर याद आ गया मुझे सहसा
अपने देश के अतीत का एक दिन,
भद्दा, बदनुमा और सियाह दिन
यानी कैकयी से दशरथ की
वचन-बद्धता का एक दिन
जो आकाशस्थ सिंहासन को
स्काई लैब की तरह
धरती पर गिराने के लिए काफी था
उस दिन भी हँसी थी
तात्कालिक वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी
कैकेयी पर,
दशरथ पर
और उस वचन-बद्धता पर,
जिसे दे रही थी रूप और आकार
कामुकता की ठोकर।