भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब तक मुक्त नहीं हो पाया / लाखन सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब तक मुक्त नहीं हो पाया-शाप ग्रस्त तप-त्याग तुम्हारा।

तुम तो मुक्त हो गये, ऋषिवर, जन-जन के शिवत्व में लय हो,
मुक्ति हुई मुग्धा सी मोहित, तुम पर जग को क्यों विस्मय हो,
मुस्काते तुम गये ज्योति का-बिखरा पड़ा पराग तुम्हारा।

तुम भागे जन मंगल के लिये, स्वयं घर द्वार छोड़कर,
मुड़ कर देखा नहीं, मातु पितु की ममता से मोह तोड़कर,
पत्थर का कर लिया कलेजा, कर न सका, कुछ राग तुम्हारा।

पर मुझको ऐसा लगता है, माँ के अश्रु पड़े हैं पीछे,
सिद्धि तुम्हारी अब तक शापित, लगता, शाप लगे हैं पीछे,
जीवन भर विष पिया आज तक जगा नहीं सौभाग्य तुम्हारा।

विष के घूँट भरे जिसके हित, वह अमृत घट काम न आया,
सूरज तुम घर गये हाथ में, तम से हमें उबार न पाया,
दहक रहा है, द्वेष-दम्भ से-वह सपनों का बाग तुम्हारा।

अब तक पड़ी ऋचायें रोतीं, गो करुणानिधि सिसक रही है,
माँ का क्षत विक्षत वक्षस्थल, आग चतुर्दिक धधक रही है,
मानवता का दर्द पूछता-कहाँ गया अनुराग तुम्हारा?

गुरुकुल की शिक्षा अनाथ है, वर्णाश्रम पद्धति रोती है,
ब्रह्मचर्य अपमानित जग में, संयम की दुर्गति होती है,
भोगवाद दे रहा चुनौती-व्यर्थ गया वैराग्य तुम्हारा।

‘संस्कार विधि’ जगा न पायी, संस्कार से हीन मनुज है,
डूब गया व्यवहार भानु ही, अन्धकार में लीन मनुज है,
असत-तिमिर से हुआ पराजित, क्या सत्यार्थ प्रकाश तुम्हारा?

ऋषिवर क्षमा माँगने माँ से, फिर से भू पर आना होगा,
आशिष लेकर शाप मुक्त हो, फिर से देश जगाना होगा,
जगती के अधरों पर होगा-तब वेदों का राग तुम्हारा।