भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब भी तुम निर्भीक हो / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 अब भी तुम निर्भीक हो कर मेरी अवहेलना कर सकती हो।
क्योंकि तुम गिर चुकी हो, पर ओ घृणामयी प्रतिमे! अभी हमारा प्रेम नहीं मरा।
तुम अब भी इतनी प्रभावशालिनी हो कि मुझे पीड़ा दे सकती हो, और मैं अब भी इतना निर्बल हूँ कि उस से व्यथित हो सकता हूँ।

दिल्ली जेल, 26 अक्टूबर, 1932