भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब हमारे दिलों में आग लगी है / सुहास बोरकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भूल जाओ कि तुमने
दाँडी में नमक बना कर
हिला दिया था पूरा साम्राज्य
हम तो नमक बेचने वाले हैं
सत्ता की दलाली के गहरी से गहरी खाई में
अधिक और अधिक और अधिक के लिए लार टपकाते हुए
हम कहीं भी रुकते नहीं
सैंधा नमक सब दफना देता हैं

भूल जाओ कि तुमने
हर आँख से हर आँसू पोंछने की बात कही थी
हम उसके लिए नहीं बने हैं

सुना है तुमने इंडिया-भारत बंटवारे के बारे में?
नकली आँसू केवल इंडिया के लिए तैयार किए जाते हैं
जबकि भारत के हिस्से आते हैं असली आँसू

हम अपने विश्व स्तरीय शहरों के
तहखानों में जमा कर रहे है
अंधा कर देने वाली आँसू गैस के गोले
जिनमें हमने गुंटूर की लाल मिर्च मिला रखी है
रोजमर्रा के इस्तेमाल के लिए
उन खेल ख़राब करने वालों और गड़बड़ी फैलाने वालों के खिलाफ
झोलेवाले भड़काऊ लोगों के खिलाफ़
जो हर चीज़ पर सवाल उठाते हैं
विकास-दर और विकास पर
द्वंद्वात्मकता और बौद्धिकता-विरोध पर

इंडिया में कुछ भी चलेगा
लेकिन भारत के मानसपटल पर
तुम अंधे और बहरे हो
क्योंकि तुम देख नहीं पाते जलती हुई इमारतें
और उन बौनों को जिन्होंने कब्ज़ा कर लिया उन पर
घोटालों की गंदी नालियों में लोटते हुए
छोटे चूहे-चुहियों की तरह
अपनी जलती हुई पूँछों की कालिख पोते हुए
क्योंकि तुम नहीं सुन सकते
सताए और दबे-कुचले हुए लोगों की चीखें
जब ढहते हैं सुलगते हुए स्तंभ

बताओ मुझे कि हमारी बेहोशी से हमें जगाएगी कौन सी दवा?
इससे पहले कि इतिहास अपने को दोहराए
जैसे पहले कभी लाल क़िले से जारी हुए फरमान
पालम से आगे लागू नहीं हो पाते थे
क्या तुम चाहते हो कि ‘क्या करना है?’
को रायसीना की पहाड़ी के अभिलेखों के टीलों में दफना दिया जाए?

नंदीग्राम या मुद्दीगोंडा-खम्मम
क्या इससे कोई फर्क पड़ता है
दुष्ट हर जगह हैं
गोलियों से छिदे शव केवल संख्या भरते हैं
जब तलक कोई जीवंत और जूझारू आवाज़
जैसे उग्र और अपराजेय नर्मदा की आवाज़
नहीं गूँजती
करो, जितनी बार करना चाहो बलात्कार करो
मैं समर्पण नहीं करुँगी
समर्पण मैं नहीं करुँगी

आँखों में सूख गए हैं आँसू
उन सुराखों को दिखाने के लिए जिनके भीतर सुलग रही है आग
और जले हुए स्तंभों के गिरने की

उन चीखों का आवेश
जिन्होंने कान के परदों को भेद दिया है
दुख और गुरबत में बिताए जीवन के
खोने के भय और चिंता में बीते जीवन का
अपनी ज़मीन, अपने चुल्हे और अपनी जीविका
सब कुछ खो देने का

कितनी और चीखों को दबाओगे
कितनी और आवाज़ों का गला घोटोगे
कितनी और औरतों का बलात्कार करेंगे बूटोंवाले भेड़िये शिकारी
कितने और किसान आत्महत्या करेंगे
कितने और आंदोलनकारी मारे जाएँगे
कितनी गोलियाँ और चाहिए कि सुलगती आग लोकमंदिर तक पहुँचे

अब हमारे दिलों में आग लगी है, ज़्यादा इंतज़ार नहीं
अब हमारे दिलों में आग लगी है, ज़्यादा इंतज़ार नहीं

अनुवाद : हेमंत जोशी