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अभिशप्त / संतोष श्रीवास्तव

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रात तेरे रोने की आवाज से
अनंत पीड़ा में भी
मुस्कुरा उठी थी मैं
मेरे रक्त का हर कतरा
शिराओं में तेज बहता
कर रहा था ऐलान
कि तू आ गई है

9 महीने मैं तुझे
महसूस करती रही
खेतों की चटखी दरारों में
जंगल की भयभीत आवाजों में
गहन अंधकार में
तड़पती बिजलियों में
नावों के असंख्य झुके पालों में
पर्वत पर की अनछुई बर्फ में
शूलों की नौकों में
पीत पर्णों की
पेड़ों की शरण तलाशती
डरी हुई आकांक्षाओं में

पता नहीं ऐसा क्यों मैंने सोचा
पता नहीं कुछ बेहतर
क्यों न सोच पाई मैं
पता नहीं क्यों लगता रहा
कि पौ फटते ही असंख्य हाथ
तेरे पालने की ओर बढ़ेंगे

कैसे बचा पाऊंगी तुझे
क्या मैं भयभीत सृष्टि का
हिस्सा नहीं हो गई
जिसमें अनंत काल से तू
जन्म लेते ही या लेने से पहले ही
छूट जाती रही मेरी सर्जना से

क्यों साँसों का तेरा हिसाब
इतना सीमित
मेरे जख्मों के दस्तावेज पर
मोहर लगाता
मात्र कुछ घंटों के लिए
तेरा अवतरित होना
और विदा कर देना
संवेदनहीन धारणाओं की
अभिशप्त सोच के द्वारा