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अभी अध्ययन का विषय है ये / वंदना गुप्ता

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लिंग कोई हो
स्त्री या पुरुष
भावनायें, चाहतें
एक सी ही प्रबल होती हैं
और प्यास भी चातक सी
जो किसी पानी से बुझती ही नहीं
सिवाय अपने प्रेमी के
और घूम जाते हैं
ना जाने कितने ब्रह्मांड एक ही जीवन में
अधूरी हसरत को पूर्ण करने की चाह में
मगर प्यास ज्यों की त्यों कायम
सागर सामने मगर फिर भी प्यासे
साथी है साथ मगर फिर भी एक दूरी
क्योंकि
साथी से रिश्ता देह से शुरु होता है
मुखर कभी हो ही नहीं पाता
स्वाभाविक छाया प्रदान करता रिश्ता
कभी जान ही नहीं पाता उस उत्कंठा को
जो पनप रही होती है
छोटे - छोटे पादप बन उसकी छाँव में
मगर नहीं मिल पाता उसे सम्पूर्ण पोषण
चाहे कितनी ही आर्द्रता हो
या कितनी ही हवा
ताप भी जरूरी है परिपक्वता के लिये
बस कुम्हलाने लगता है पादप
मगर यदि
उस छायादार तरु के नीचे से
उसे हटाकर यदि साथ में रोंप दिया जाये
और उसका साथ भी ना बिछडे
तो एक नवजीवन पाता है
उमगता है, उल्लसित होता है
अपना एक मुकाम कायम करता है
सिर्फ़ स्नेह की तपिश पाकर
जहाँ पहले सब कुछ था
और नही थी तो सिर्फ़
तपिश स्नेह की
हाँ वो स्नेह, वो प्रेम, वो राग
जहाँ शारीरिक राग से परे
एक आत्मिक राग था
जहाँ प्रेम के राग के साथ
देहात्मक राग भी था

क्योंकि
जहाँ प्रेम होता है वहाँ शरीर नहीं होते
आत्मिक रिश्ता अराधना, उपासना बन रूह मे उतर जाता है
जीवन में नव संचार भरता है
क्योंकि
चाहिये होता है एक साथ ऐसा
जहाँ प्रेम का उच्छवास हो
जहाँ प्रेम की स्वरलहरियाँ मनोहारी नृत्य करती होँ
और कुम्हलायी शाखाओं को
प्रेमरस का अमृत भिगोता हो
तो कैसे ना अनुभूति का आकाश विस्तृत होगा
कैसे ना मन आँगन प्रफ़ुल्लित होगा
क्योंकि
जीवन कोरा कागज़ भी नहीं
जिसका हर सफ़ा सफ़ेद ही रह जाये
भरना होता है उसमें भी प्रेम का गुलाबी रंग
और ये तभी संभव है जब
आत्मिक राग गाते पंछी की उडान स्वतंत्र हो

और जहाँ शरीर होते हैं वहाँ प्रेम नहीं होता
दैहिक रिश्ता नित्य कर्म सा बन जाता है
क्योंकि
कोरे भावों के सहारे भी जीवन यापन संभव नहीं
जरूरी होता है ज़िन्दगी में यथार्थ के धरातल पर चलना
भावना से ऊँचा कर्तव्य होता है
इसलिये जरूरी है
दैहिक रिश्ते को आत्मिक प्रेम के लबरेज़ रिश्ते से विलग रखना
क्योंकि
गर दोनों इसी चाह मे जुट जायेंगे तो
सृष्टि कैसे निरन्तरता पायेगी
इसलिये प्रवाह जरूरी है
देहात्मक रिश्ते का अपनी दिशा में
और आत्मिक रिश्ते का अपनी दिशा में
और मानव मन इसी चाह मे भटकता ढूँढता फ़िरता है
किसी एक रूप मे दोनो चाहतें
जो संभव नहीं जीवन के दृष्टिकोण से

वैसे भी प्रेम कभी दैहिक नहीं हो सकता
और वासना कभी पवित्र नहीं हो सकती
इसलिये दैहिक रिश्ता कभी प्रेमजनित नही हो सकता
हो सकता है तो वो सिर्फ़ आदान - प्रदान का माध्यम
या कर्तव्य कर्म को निभाती एक मर्यादित डोर

इसलिये चाहिये होता है
एक समानान्तर रिश्ता देह के साथ नेह का भी
चाहिये होता है
एक प्रेमपुँज जिसकी ज्योति से आप्लावित हो
जीवन की लौ जगमगा उठती है
मगर ऐसे रिश्ते स्वीकार्य कब होते हैं?
कैसे संभव है दो रिश्तों का समानान्तर चलना?
दैहिक रिश्ते जीवन यापन का मात्र साधन होते हैं
और आत्मिक रिश्ते ज़िन्दगी का दर्शन, अध्ययन, मनन और चिन्तन होते हैं

क्या स्वीकारेगा ये समाज समानान्तर रिश्ता
स्त्री हो या पुरुष दोनो का, दोनों के लिये?
अभी अध्ययन का विषय है ये