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अवलोकन / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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नभ-तल, जल, थल, अनल, अनिल में है छवि पाती;
कहाँ कलामय-कला नहीं है कला दिखाती।
रंजित जो रज को न लोक-रंजन कर पाते;
जन-रंजनता सकल कुसुम कैसे दिखलाते।
हरे-हरे तरु-पुंज की रुचिरतर हरियाली;
क्यों करती जी हरा जो न होती हरि-पाली।
क्यों ललामता लिये ललित लतिका लहराती;
जो न त्रिलोक-ललाम ललक लालित कर जाती।
श्यामल, कोमल, नवल तृणावलि तो न लुभाती;
घन-रुचि-तन से जो न रुचिर श्यामलता पाती।
कलित कमल-कुल सदन न कमला का कहलाता;
दल-दल को जो नहीं कमल-दृग कांत बनाता।
तो सकल विभाकर गगन के विभावान होते नहीं;
जो अखिल विभामय जगत में विभा-बीज बोते नहीं।