भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अशोकक छाल / राजकमल चौधरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रितु खसल पर भेल बरखा, दिन खसल पर सूर्य्य चमकल
पिआसक भ्रमर मरि गेल, आब की जे गुलाब विहुँसल?

रूप-यौवन बीत गेलाके कतेक उपरान्त
कुँजवन अभिसार-हित अयलाह रूसल कान्त
मुरझायलि रहलि लजबन्ती
राजा नल छथि ठाढ़े, सम्मुख मरल पड़लि दमयन्ती
दिन ढ़रल पर भेल बरखा
हरिअरी भीजल, उदास, मुखम्लान, विवशा
विरहिणी दुखमय दशा (मे व्याप्त!
की लाभ? मरबाकाल अयलीह लक्ष्मी प्रणय-अलसा (भेलीह जँ आप्त)
मरि रहल छी
अपनइ सजयलउँ चिता, अपनइ जरि रहल छी

कमलाधारमे भसिआइत, चल जाइत एकसरि नाह
ने कोनो यात्री, ने कोनो नाविक मलाह
धधकइत धधरा सन लहरि जलके ने कत्तउ थाह
उधिआयल कमलासँ पुछइ छी-अपन गामक हाल
अपन गेहक हाल, अपन धामक हाल
जीवनक ओहि पूर्णविरामक हाल
प्रश्नचिन्ह व्यथाक बनि जे ठाढि हयती केबाड़े लग हमर रानी
चिर-प्रतिक्षारत, एतय हम तकइ छी सोन-चानी
तकइ छी अपन फूटल भाग
तकइ छी वस्त्र, गृह, नोन, रोटी, साग
पुछइ छी जल-लहरिसँ कविप्रियाक हाल
छोड़बइत छी पुरनका अशोकक छाल
पीसब, हृदय-व्रण पर लगायब
भग्न वीणा पर पुरनके रोग, पुरने गीत गायब
कहियो त’ जायब गाम
हयत दक्षिण समय कहिओ, जे एखन अछि बाम

निसि हँसल त’ भेल बरखा
तारकावलि दंत-पाँती श्वेत, लागल चेहरा पर किन्तु, करिखा
अन्हारक खेल चारू कात होइए ओरिआन
तोड़बाक लेल रात्रि-सुन्दरीक मान अभिमान
मुदा, हे लजवन्तिनि, हे दमयन्तिनि, ई अछि निश्चित
एहिमे ने अनिश्चय किंचित-
जे, बान्हब नइँ कथमपि आब अहाँके अपन सिनेहसँ
जे, बान्हब नइँ भनसाघरसँ, शयन-गेहसँ

जे, बान्हब नइँ अपन बताह मोनसँ, रोगिआह देहसँ
ई सभ बन्धन थिक व्यर्थ
बन्धनेक कारनें होइए सभटा अनर्थ
तेआगि दइए नारी अपन नलक प्रतीक्षा
जरि जाइत सीता छथि जखन होइए अग्निपरीक्षा

भेल बरखा, उगल रसवृक्ष, मुदा हृदये छल सुड्डाह
बहइत गेलउँ, लय गेल जतय हमरा समय प्रवाह
जरइत रहलउँ, धधकइत रहल
आत्माक धाह।