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अश्कनामा / भाग 1 / चेतन दुबे 'अनिल'

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मेरे कवि की लेखनी उठो
कवि – कुल का उज्ज्वल नाम करो,
मधुरस में चोंच डुबोकर, माँ
वाणी को प्रथम प्रणाम करो।

मेरे कवि की लेखनी जगो
नूतन रचना – निर्माण करो ,
सपनों के साज मिलाने को
चलने का नया विधान करो।

वेदने! जगो, आगे बढ़कर
कवि की कविता की जय बोलो,
किसलिए भयातुर होती हो
अन्तर्मन के फाटक खोलो।

मेरे कवि की कल्पने! तुम्हें
नूतन रचना रचवाना है,
इसलिए विगत की सुधियों को
फिर वर्तमान में लाना है।

साधने! शिथिल क्यों होती हो
सुधि के सागर को पार करो ,
जो कुछ कहना है कह डालो
इस पार करो, उस पार करो।

विधि ने जो लिखा, उसे भोगो
वेदने! विकल क्यों होती हो,
जीवन है समर, बढ़ो आगे
कल्पने! किसलिए रोती हो।

मेरे मानस के मान जगो
ऐ तानसेन की तान जगो,
दुनिया में झूठी शान जगी
उर के आकुल अरमान जगो।

अन्तर की आकुल आस जगो
पीड़ा से प्लावित प्यास जगो,
दर्दों के पर्वत हटो दूर
मेरे मन के मधुमास जगो।

बैजू के दीपक-राग जगो
आकुल अन्तर की आग जगो,
आँसू के सागर में डूबे
मेरे उर के अनुराग जगो।

उर्वशी ! किसलिए रूठ गईं
किसलिए मान कर बैठी हो
क्यों कैकेई – सा कोप किए
क्या हृदय ठानकर बैठी हो?