भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँखें तरस रहीं मेरी दीदारे-यार को / कविता सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखें तरस रहीं मेरी दीदारे-यार को।
मिलता नहीं करार दिले-बेकरार को॥

एे सोज़े-हिज्रां आज ज़रा देर तक ठहर-
तन्हा न छोड़ देख ग़मों के दयार को।

अबके दिए हैं ज़ख़्म हज़ारों बहार ने-
ले के कहाँ मैं जाऊँ दिले-दागदार को।

किस शहर में तलाश करूँ जाऊँ मैं कहाँ-
ढूँढूँ कहाँ पर जाके अपने खोए प्यार को।

ज़ालिम को मुझ पर आज भी आया नहीं रहम-
ठोकर से उसने मेरी उड़ाया मज़ार को।

दैरो-हरम में ढूँढता है अब ख़ुदा को तू-
भूला हुआ है रोज़े अज़ल के क़रार को।

मरहम लगा रहा है वह आकर के एे 'वफ़ा' -
कह दो कि आने दे अभी ज़ख़्मे-बहार को।