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आँसू अनुपात हरे / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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मैं घर-द्वार छोड़ कर भटकूँ,
वन-वन विजन-विजन में!
बड़ी विसंगतियाँ होती हैं,
छोटे से जीवन में!

पीड़ा जितनी बढ़े, बढ़े उतनी ही नादानी,
अपनी बानी भूल, सीख-ली निर्जन की बानी,
कोई भी अन्तर न रह गया
गुन्जन औ क्रन्दन में!

घाटी उतरे देह, प्राण पर्वत-पर्वत डोले,
अधर-धरी बाँसुरी, स्वगत की भाषा में बोले,
संवेदन करुणा में बदले
करुणा संवेदन में!

झील आँख नम कर जाये, आँसू अनुपात हरे,
अस्तंगत सूरज कुहरे में सौ-सौ रंग भरे,
रूप, दिखे पहले जैसा
जल के अन्धे दरपन में!

तन्वंगी सुधि वशीकरण मन्त्रों का जाप करे,
ऐसा लगे, कि शीश-धरे मेघों से गन्ध झरे,
जाने श्वास कहाँ टूटे
कस्तूरी सम्मोहन में!