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आखर कबिरा की साखी के / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

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एक एक कर अन्तर्पट पर
उभरे बिम्ब अतीत के

मॉं की पीर पिता की चिन्ता
उभरी जस की तस
तोड़ रहे दम स्वप्न सलोन
दिन-दिन खाकर गश
नोन तेल लकड़ी में बिसरे
रिश्ते नाते प्रीत के

इच्छाओं की फौज बिदकती
जब जब भटका मन
थमा दिया दुख के हाथों ने
जीवन का दर्शन
मरू प्रदेश में मृगजल होता
ख्बाब न देखे जीत के

विश्वग्राम से ग्रामलोक की
देह रही है छिल
आखर कबिरा की साखी के
दिखते हैं धूमिल
तम्बू तने हुए ज्योें के त्यों
नई-पुरानी रीत के
¬
बिसरी अपनी बोली बानी
बिसरा सम्बोधन
बंसी, मादल, सोन मछरिया
बिसर रहा गोधन
मिले न साधक पंत, निराला
दिनकर जैसे गीत के।
संस्कार की पौध

स्वेद कणों से
हमने घर की
जड़ को सींचा है
दौड़ रहे हैं
हमें काटने
घर के ही कौने

ऑंगन देहरी दर-दीवारों
कोे ऊंचाई दी
कुऑं खाई से खर्चों की
हमने भरपाई की

घर की ओर उठे तूफॉं को
उर में भींचा है
दिखे ऑंख में चौखट की हम
तब भी तो बौने

विपदाओं की भरी गठरिया
कॉंधे ढ़ोई है
संस्कार की पौध उमर भर
हमने बोई है

भौतिकता का जुआ धरा है
अपनी गरदन पर
ढली उमर की गलियों में अब
दुखड़े हैं ढोने