भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आगम / अरुण कमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

केश तो बहुत पहले पक गए थे
जिन्हें तभी देखता जब आईना हो सामने
और आँखों पर कत्थई घेरे
जो ऎसे नज़र नहीं आते
आवाज़ में भी शायद पानी आ गयाथा
और छाती भी ढलने लगी थी कुछ
पर आज तो हथेली के ऊपर साफ़ दिखी
ढीली हुई चमड़ी भुरभुरी

तो क्या शुरू है अंत?
पास है समय?