भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज की सीता / सुलोचना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो आज की सीता है
अपना वर पाने को
अब भी स्वय्म्वर रचाती है
वन में ही नही
रण में भी साथ निभाती है

अपनी सीमाएँ खुद तय करती है
लाँघेघी जो लक्ष्मण की रेखा है
परख है उसे ऋषि और रावण की
पर दुर्घटना को किसने देखा है

रावण का पुष्पक सीता को ले उड़ा
लोगों का जमघट मूक रहा खड़ा
लक्ष्मण को अपने कुल की है पड़ी
रावण लड़ने की ज़िद पे है अड़ा
राम ने किया है प्रतिकार कड़ा
कुलवधू का अपहरण अपमान है बड़ा
येन केन प्रकारेन युद्ध है लड़ा
फूट गया रावण के पाप का घड़ा

वैदेही अवध लौट आई है
जगत ने अपनी रीत निभाई है
आरोप लगा है जानकी पर
अग्निपरीक्षा की बारी आई है

तय किया है सती ने अब
नही देगी वो अग्नि परीक्षा
विश्वास है उसे खुद पर
क्यों माने किसी और की इच्छा

सहनशील है वो, अभिमानी है
किसी के कटाक्ष से विचलित
न होने की ठानी है
राम की अवज्ञा नही कर सकती
रघुकुल की बहूरानी है

दुष्कर क्षण है आया
क्या करे राम की जाया
भावनाओं का उत्प्लावन
नैनों में भर आया
परित्याग का आदेश
पुरुषोत्तम ने सुनाया
परित्यक्तता का बोध
हृदय में समाया
भूल किया उसने जो
वन में भी साथ निभाया
राजमहल का सुख
व्यर्थ में बिसराया

हृदय विरह व्यथा से व्याकुल है
मन निज पर शोकाकुल है
उसका त्याग और अर्पण ही
सारे कष्टों का मूल है

किकर्तव्यविमूढ पर संयमी
नही कहेगी जो उस पर बीता है
अश्रु को हिम बनाएगी
विडंबना ये है कि वो आज की सीता है