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आज थका हिय हारिल मेरा! / अज्ञेय

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इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?
शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा!
दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता,
तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में बल भरता,

ऊषा से ही उड़ता आया, पर न मिल सकी तेरी झाँकी
साँझ समय थक चला विकल मेरे प्राणों का हारिल पाखी :
तृषित, श्रान्त, तम-भ्रान्त और निर्मम झंझा-झोंकों से ताडि़त-
दरस प्यास है असह, वही पर किये हुए उस को अनुप्राणित!

गा उठते हैं, 'आओ, आओ!' केकी प्रिय घन को पुकार कर
स्वागत की उत्कंठा में वे हो उठते उद्भ्रान्त नृत्य पर!
चातक-तापस तरु पर बैठा स्वाति-बूँद में ध्यान रमाये,
स्वप्न तृप्ति को देखा करता 'पी! पी! पी!' की टेर लगाये;

हारिल को यह सह्य नहीं है-वह पौरुष का मदमाता है :
इस जड़ धरती को ठुकरा कर उषा-समय वह उड़ जाता है।
'बैठो, रहो, पुकारो-गाओ, मेरा वैसा धर्म नहीं है;
मैं हारिल हूँ, बैठे रहना मेरे कुल का कर्म नहीं है।

तुम प्रिय की अनुकम्पा माँगो, मैं माँगूँ अपना समकक्षी
साथ-साथ उड़ सकने वाला एकमात्र वह कंचन-पक्षी!'
यों कहता उड़ जाता हारिल ले कर निज भुज-बल का सम्बल,
किन्तु अन्त सन्ध्या आती है-आखिर भुज-बल है कितना बल?

कोई गाता, किन्तु सदा मिट्टी से बँधा-बँधा रहता है,
कोई नभ-चारी, पर पीड़ा भी चुप हो कर ही सहता है;
चातक हैं, केकी हैं, सन्ध्या को निराश हो सो जाते हैं,
हारिल हैं-उड़ते-उड़ते ही अन्त गगन में खो जाते हैं।

कोई प्यासा मर जाता है, कोई प्यासा जी लेता है,
कोई परे मरण-जीवन से कड़वा प्रत्यय पी लेता है।
आज प्राण मेरे प्यासे हैं, आज थका हिय-हारिल मेरा,
आज अकेले ही उस को इस अँधियारी सन्ध्या ने घेरा।

मुझे उतरना नहीं भूमि पर तब इस सूने में खोऊँगा
धर्म नहीं है मेरे कुल का-थक कर भी मैं क्यों रोऊँगा?
पर प्रिय! अन्त समय में क्या तुम इतना मुझे दिलासा दोगे-
जिस सूने में मैं लुट चला, कहीं उसी में तुम भी होगे?

इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?
शुभे! तुम्हारे स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा।

बड़ोदरा, 30 अगस्त, 1936