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आत्मिक न्याय का युद्ध ! / उत्तिमा केशरी

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माँ !
तुम कितना भी कुछ कहो,
मगर मैं नहीं बनना चाहती,
डॉक्टर, इंजीनियर
प्रशासनिक पदाधिकारी
या फिर,
न्यायधीश !

माँ !
मैं सिर्फ़ बनना चाहती हूँ
क़लम का —
एक संवेदनशील, प्रबुद्ध सिपाही
और
लड़ना चाहती हूँ —
प्रतिकूल स्थितियों से
आत्मिक-न्याय का युद्ध।

ताकि,
बचा रहे,
मेरी शब्द-सम्पदा का ज़मीर।