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आत्म-चिंतन / आरती 'लोकेश'

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धन संचय है जब बढ़ जाता, गर्व कोष का होता संचन,
रिश्ते-नाते न कोई सुहाते, लोभी लगते सारे बंधन।

अहम सबल हो शीश उठाता, काम-क्रोध का होता अर्जन,
ध्यान नहीं केंद्रित हो पाता, निरर्थ दिखावा पूजा-अर्चन।

रहे सुरक्षित जन-धन कैसे, दिवस-रात्रि इक यही चिंतन,
दुर्बल कौन कौन है दुर्जन, संशय का नित होता अंकन।

क्या खोया क्या पाया धन से, जब भी होगा यह मूल्यांकन,
हाथ रिक्त परिलक्षित होंगे, उर-सागर का हो यदि मंथन।

लाचारी, भय और बेकली, हाथ तेरे नहीं कोई कंचन,
स्वजन बिना व्यर्थ तरक्की, भले उन्नति का जग-मंचन।